रविवार, 20 जून 2010

हिंसा का महाख्यान- अहिंसक वातावरण की तलाश में

       हिंसा के बारे में बातें करना सामान्य बात है. आमतौर पर हम सभी हिंसा विभिन्न रूपों को देखते हैं , देखकर कभी दुखी होते हैं ,कभी सुखी होते हैं ,कभी पराजय कभी हताशा और कभी हिंसा में आशा की किरणें देखते हैं।
    हिंसा के नाम अनेक हैं,किसी एक नाम से हिंसा को रेखांकित करना संभव नहीं है। वाचिक हिंसा से लेकर आतंक के खिलाफ जारी अमरीकी हिंसा तक इसका दायरा फैला हुआ है। भारत के महानगरों में घरेलू हिंसाचार से लेकर साम्प्रदायिक दंगों तक व्यापक कैनवास में हिंसा फैली हुई है। हिंसा के वे भी इलाके हैं जहां मुस्लिम आतंकवादी-फंडामेंटलिस्ट -पृथकतावादी संगठित हिंसाचार कर रहे हैं।
   अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कांगो से इराक तक, अफगानिस्तान से डरफो तक हिंसा का ताण्डव चल रहा है। इसके अलावा पूंजीवादी हिंसाचार हमारे देश के छोटे-छोटे शहरों से लेकर दुनिया के समृद्धतम देशों में पैर पसार चुका है। कहने का यह अर्थ है हिंसा कोई सामान्य परिघटना नहीं है बल्कि विशिष्ट परिघटना है और इसी रूप में इसके विविध पहलुओं को देखा जाना चाहिए। दुनिया के कई इलाके ऐसे हैं जहां पर हिंसाचार महामारी की तरह फैला हुआ है।
   विकसित पूंजीवादी मुल्कों में हिंसा को भय के रूप में सक्रिय देख सकते हैं। हिंसा के इन देशों में रूप हैं बच्चों का अपहरण,कार अपहरण,मनो-उत्पीडन,नशीली दवाओं की लत आदि। इन क्षेत्रों में हो रही हिंसाचार की खबरें हम आए दिन अखबारों में पढ़ते रहते हैं। इसके अलावा राजनीतिक तौर पर नजरदारी के नाम पर होने वाले हिंसाचार को भी हमें गंभीरता से लेने की जरूरत है।
    हिंसा का पहला गंभीर परिणाम है नागरिक अधिकारों का क्षय। हिंसा के जरिए सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने के जितने भी उपाय किए जाते हैं वे अंततः नागरिक अधिकारों के हनन में रूपान्तरित होते हैं। हिंसा के दायरे में अलगाव या अलग-थलग डालने के प्रयासों ,उत्पीडन,भय,आतंक और पक्षपात को भी रखा जाना चाहिए।
    एक जमाना था जब पूंजीवादी राज्य बुरी चीजों के खिलाफ संघर्ष करने वालों का साथ देता था लेकिन इन दिनों पूंजीवादी राज्य बदल गया है अब वह बुरी चीजों और बुरे लोगों का साथ देता है।
     परवर्ती पूंजीवादी दौर में पैदा हुई बाजार की प्रतिस्पर्धा ने पूंजीवाद को बुरी चीजों का सहभागी बनाने के साथ साथ दैनन्दिन जीवन में बर्बरता को महिमामंडित किया है, बर्बरता में मजा लेने की मानसिकता पैदा की है। हिंसा के बढ़ते प्रभाव ने स्थानीय स्तर पर हिंसक गिरोहों,माफिया,जातिवादी पंचायतों,जाति सेना,हरमद वाहिनी,माओवादी,आतंकी, साम्प्रदायिक गोलबंदियों को हवा दी है।
     लोकतंत्र में चुनाव की प्रक्रिया में हिंसा का दखल लगातार बढ़ रहा है। लोकतांत्रिक वातावरण में प्रचार के नाम पर साम्प्रदायिक विष वमन या प्रचार ही है जो साम्प्रदायिक हिंसा को जन्म देता है। आम जीवन में बढ़ती वाचिक हिंसा की घटनाएं इस बात का संकेत हैं कि हम पूंजीवादी विकास प्रक्रिया में सभ्य कम बर्बर ज्यादा बने हैं। हमारे अंदर बर्बरता ने इस कदर पैर जमा लिए हैं कि हम सभ्य व्यवहार तेजी से भूलते जा रहे हैं।
       तथाकथित सभ्यों की हिंसा का आदर्श उपकरण है असहिष्णुता। हम इस कदर बर्बर होते जा रहे हैं कि हमें अपनी बर्बरता नजर ही नहीं आती। हमारी भाषा में लगातार सभ्यता की भाषा का क्षय हो रहा है हम ज्यादा से ज्यादा असहिष्णु, हिंसक,आतंकी,युद्धभाषा के प्रयोग करने लगे हैं। इन प्रयोगों को हमने कभी तटस्थभाव से देखने की कोशिश नहीं की है।
     हिंसा के इसी व्यापक कैनवास को आने वाले दिनों में हम खोलने की कोशिश करेंगे। हम चाहते हैं कि हिंसा के प्रति सामाजिक सतर्कता बढ़े,हम और भी ज्यादा मानवीय बनें,अहिंसक बनें और परवर्ती पूंजीवाद की बृहत्तर प्रक्रिया और परिप्रेक्ष्य में हिंसा का विचारधारात्मक मूल्यांकन करें। यह इस सिलसिले की पहली कड़ी है।  

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