शनिवार, 1 मई 2010

मई दिवस पर विशेष - दादातंत्र ,युद्धतंत्र और भोगतंत्र से तबाह मजदूरवर्ग


      मई दिवस को आज जिस उल्लास और जोशोखरोश के साथ मनाया जाना था वह जोशोखरोश गायब है। मजदूरवर्ग गंभीर संकट में है,यह संकट बहुआयामी है। आर्थिकमंदी में पूंजीपतियों को संकट से उबारने के लिए पैकेज दिए गए लेकिन इन पैकेजों का लाभ मजदूरों तक नहीं पहुँचा है।
     मंदी से पूंजीपतिवर्ग को कम और मजदूरों को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। मंदी की मार से मजदूरों को बचाने के लिए मनमोहन सिंह की सरकार ने कोई ठोस विकासमूलक या मजदूरों की मदद करने वाला कोई भी कदम नहीं उठाया। मंदी की मार के बावजूद पूंजीपतिवर्ग के मुनाफों में कमी नहीं आई जबकि मजदूरों की पामाली कई गुना बढ़ी है। बेकारी कई गुना बढ़ी है। हजारों कारखाने बंद हो गए हैं। मंहगाई आसमान छूने लगी। इसके बावजूद हमारी केन्द्र सरकार ने मजदूरों की रक्षा के लिए,आर्थिक मदद के लिए एक भी कदम नहीं उठाया।
    छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने से सरकारी मजदूरों और कर्मचारियों का एक तबका खुश था कि नया वेतनमान आया,लेकिन मंहगाई की छलांग ने नए वेतनमान की खुशी को गायब कर दिया है। जिस गति से सरकारी कर्मचारियों के वेतन बढ़े हैं उसकी तुलना में निजी क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की पगार नहीं बढ़ी है बल्कि उनकी पगार कम हुई है।  
    आज की सच्चाई यह है कि केन्द्र और राज्य सरकारें मिलकर सैन्य और अर्द्ध सैन्यबलों पर जितना खर्च कर रही है उतना विकास पर नहीं। मसलन् माओवाद प्रभावित 136 जिलों में आज अर्द्ध सैन्य आपरेशन पर जितना पैसा खर्च किया जा रहा है,हथियार खरीदने और अस्त्र -शस्त्र तैयार करने पर जितना खर्च किया जा रहा है उतना पैसा गरीबों तक खाद्य सामग्री,स्कूल बनाने,अस्पताल खोलने पर खर्च नहीं हो रहा है।
     हमारे देश में लोकतंत्र है लेकिन समग्रता में बड़ी इमेज बनाकर देखें तो राज्य की लोकतंत्र की नहीं ‘वार स्टेट’ की इमेज दिखाई दे रही है। यह बड़ी भयानक छवि है। उत्तर-पूर्व में सेना घरेलू मोर्चा संभाले है.कश्मीर में सेना घरेलू मोर्चा संभाले है।  माओवाद प्रभावित 136 जिलों में हजारों अर्द्ध सैन्यबल घरेलू मोर्चा संभाले हैं, ऐसी अवस्था में सोचें कि देश में कितने कम इलाके हैं जहां लोकतंत्र की हवा बह रही है ? जो इलाके युद्धतंत्र और दादातंत्र से बचे हैं वहां भोगतंत्र ने कब्जा जमा लिया है।
    देश में बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का अपराधी गिरोहों,साम्प्रदायिक और पृथकतावादी सगठनों, निजी सेनाओं या पार्टी तंत्र के जरिए खुला उल्लंघन हो रहा है। बाकी जो कुछ बचता है उसे सैन्यबलों के जरिए छीन लिया गया है। सैन्यबलों के आपरेशन और मानवाधिकार हनन की अवस्था में लोकतंत्र बंदूकतंत्र या दादातंत्र में बदल गया है।
     दादातंत्र के कारण पश्चिम बंगाल जैसा सुंदर मजदूर राज्य नष्ट हो चुका है। दादातंत्र ने मजदूरवर्ग को सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त किया है। दादातंत्र मूलतः ‘युद्ध तंत्र’ का जुड़वां भाई है। दादातंत्र और युद्धतंत्र एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मजदूरवर्ग के लिए ये दोनों ही फिनोमिना नुकसानदेह हैं।
    दादातंत्र के नियमों का साम्प्रदायिक दलों ,अपराधी गिरोहों,निजी सेनाओं, पृथकतावादी संगठनों ने अपने-अपने इलाकों में जमकर दुरुपयोग किया है। इससे आम मजदूर की हालत खराब हुई है। धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक राष्ट्र गायब हो गया है। अब तो धर्मनिरपेक्षता-लोकतंत्र किताबों के पन्नों में ही दिखते हैं बाहर तो दादातंत्र ,युद्धतंत्र और भोगतंत्र के ही दर्शन होते हैं।
    अब साधारण आदमी और खासकर मजदूर ,राजनीति में भाग लेना पसंद नहीं करता। मजदूरों में अ-राजनीतिकरण बढ़ा है। अपराधीकरण बढ़ा है। मजदूरवर्ग में वर्गीयचेतना का ह्रास हुआ है और नग्न अर्थवाद और भोगवाद बढ़ा है। मजदूरों में संस्कृति की बजाय मासकल्चर का प्रभाव बढ़ा है। मार्क्सवादी विश्वदृष्टिकोण की बजाय स्थानीयतावाद बढ़ा है। मजदूरवर्ग और उसके संगठनों की छवि एक कंजरवेटिव दादा संगठन की बनकर रह गयी है। मजदूर संगठन कैसे सौदेबाजी और दबाव की राजनीति के गिरोह में बदल गए ,इसके दर्शन करने हों तो कभी पश्चिम बंगाल चले आएं और कहीं पर भी मजदूरवर्ग के संगठनों के बदले हुए इस रुप को देख सकते हैं।
    विगत 40 सालों में पश्चिम बंगाल में मजदूरवर्ग की इमेज में मूलगामी परिवर्तन आया है। अब मजदूरों के संगठन ,दादावर्ग के संगठन के रुप में ज्यादा पहचाने जाते हैं। मजदूरवर्ग को दादा नामक नए वर्ग ने अपदस्थ कर दिया है।  दादावर्ग यहां का राजनीतिक अभिजन है। यह सभी दलों की साझा पूंजी है।
     मजदूरों की राजनीति करने वालों में असहिष्णुता बढ़ी है। अन्य के प्रति अ-जनतांत्रिक भाव बढ़ा है। इसके कारण बुर्जुआ संगठनों से भी खराब व्यवहार और राजनीति का प्रदर्शन मजदूरवर्ग के संगठन करने लगे हैं। मजदूरों के प्रति साधारण नागरिक की घृणा में इजाफा हुआ है। श्रम और श्रमिकवर्ग के प्रति घृणा में वृद्धि हुई है। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि मजदूर नेताओं ने मजदूरवर्ग को दलीय चुनावी राजनीति का गुलाम बना दिया, दलीय चुनावी हितों को मजदूरवर्ग के हितों की तुलना में तरजीह दी। फलतः आम वातावरण से लोकतंत्र और मजदूरवर्ग गायब हो गया है। काश ! जागरुक बुद्धिजीवी और मार्क्सवादी इसे रोक पाते।          



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