रविवार, 9 मई 2010

कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150वीं जयन्ती पर विशेष- दीन-हीन मनुष्य का सम्मान पद है धर्म -1-

(महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर)
  (हम रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150वीं जयन्ती को नया जमाना पर पूरे साल मनाएंगे। इस साल हिन्दी के भी कई महान लेखकों के जन्म शताब्दी समारोह पूरे साल चलेंगे। हम लगातार साहित्य की महान विभूतियों को स्मरण करते हुए अपने सामयिक युग , उनके साहित्य और विचारों का नया मूल्यांकन करने की कोशिश करेंगे। आज यहां इस लेख में रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचारों की रोशनी में धर्म का मूल्यांकन कर रहे हैं। 
    एक अन्य लेख सरला माहेश्वरी का दे रहे हैं जिसमें रवीन्द्रनाथ टैगोर को समग्र परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित किया गया है। तीसरा लेख अरुण माहेश्वरी ने लिखा है जिसमें सिलसिलेबार ढ़ंग से रवीन्द्रनाथ टैगोर के व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रियाओं का विस्तार से सामयिक समस्याओं के संदर्भ में विश्लेषण किया गया है। )
       हिंदी के बुद्धि‍जीवि‍यों में धर्म 'इस्‍तेमाल करो और फेंको' से ज्‍यादा महत्‍व नहीं रखता। अधि‍क से अधि‍क वे इसके साथ उपयोगि‍तावादी संबंध बनाते हैं। धर्म इस्‍तेमाल की चीज नहीं है। धर्म मनुष्‍यत्‍व की आत्‍मा है। मानवता का चरम है। जि‍स तरह मनुष्‍य के अधि‍कार हैं ,लेखक के भी अधि‍कार हैं,वैसे ही धर्म के भी अधि‍कार हैं।धर्म और कलाएं मनुष्‍य के लि‍ए हैं। मनुष्‍य के बाहर इनका कोई अस्‍ति‍त्‍व नहीं है।
      एक जगह कथाकार उदयप्रकाश ने सही रेखांकि‍त कि‍या है कि‍ हमने धर्म की इकहरी और उपयोगितावादी भूमि‍का पर ही ज्‍यादातर समय ध्‍यान केन्‍द्रि‍त कि‍या है। धर्म के मर्म को कभी समझने का प्रयास ही नहीं कि‍या। धर्म का उपयोगि‍तावाद कब से जीवन में आया यह ठीक ठीक बताना संभव नहीं है। धर्म का स्‍थान उपयोगि‍ता में नहीं मनुष्‍यत्‍व में है।‍
     उदयप्रकाश ने लि‍खा है '' सचमुच धर्मकहते ही हम स्वयं को उस प्रदूषित अवधारणा के बीचों-बीच पाते हैं, जिसे हमारे समय और निकट अतीत की राजनीति, सत्ता, पूंजी और मीडिया ने चौतरफा पैदा किया है।''         
      धर्म पर कोई भी बहस उपयोगि‍तावादी फ्रेमवर्क में नहीं की जा सकती। यह बहस का सीमि‍त दायरा है। धर्म को जब तक मनुष्‍य के अन्‍मर्ग्रथि‍त हि‍स्‍से के रूप में नहीं देखेंगे, मनुष्‍यत्‍व के नि‍र्माण के प्रकल्‍प के रूप में नहीं देखेंगे, धर्मवि‍ज्ञान के नजरि‍ए से नहीं देखेंगे,एक सर्जक के हृदय की नजर से जब तक नहीं देखेंगे तब तक धर्म के मर्म को पकडना संभव नहीं है।
      रवीन्‍द्रनाथ टैगोर आधुनि‍क धर्मनि‍रपेक्ष लेखक थे। अनेक मामलों में उनकी समझ अपने युग के सभी वि‍चारकों ,आलोचकों ,रचनाकारों और कला मनीषि‍यों के वि‍चारों की सीमाओं को भेदती हुई मनुष्‍यत्‍व के मर्म तक गयी है। रवीन्‍द्रनाथ टैगोर का जि‍क्र इसलि‍ए भी जरूरी है कि‍ उन्‍होंने एक परंपरा भी बनायी थी,जि‍से हिंदी वाले दूसरी परंपरा कहते हैं।
       इस परंपरा में धर्म के बारे में रवीन्‍द्रनाथ के जो वि‍चार हैं,वे हम सभी लेखकों, बुद्धि‍जीवि‍यों,राजनीति‍ज्ञों आदि‍ के लि‍ए जानना बेहद जरूरी हैं। मैं अभी तक समझ नहीं पाया कि‍ रवीन्‍द्रनाथ के धर्म संबंधी वि‍चारों का हिंदी लेखकों पर प्रभाव क्‍यों नहीं पड़ा,जो रवीन्‍द्र परंपरा के हिंदी में उत्‍तराधि‍कारी हैं ,उन पर इस परंपरा का हजारीप्रसाद द्वि‍वेदी के बाद असर क्‍यों नहीं पड़ा ?
     रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने एक व्‍याख्‍यान ब्रह्मसमाज में 26 जनवरी 1912 को दि‍या था,इस व्‍याख्‍यान का शीर्षक था 'धर्म का अधि‍कार' प्रत्‍येक भारतीय को यह लेख पढना चाहि‍ए। धर्मनि‍रपेक्ष हिंदी लेखकों खासकर प्रगति‍शीलों को तो जरूर पढना चाहि‍ए।
     रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने लि‍खा है '' जि‍न महापुरूषों की वाणी आज तक पृथ्‍वी पर अमर है उन्‍होंने कभी दूसरों के मन को खुश करते हुए अपनी बात कहना नहीं चाहा।वे जानते थे कि‍ मनुष्‍य अपने मन से कहीं बड़ा है- मनुष्‍य अपने को जो समझता है वहीं उसकी समाप्‍ति‍ नहीं है। इसीलि‍ए महापुरूषों ने अपना दूत सीधे मनुष्‍यत्‍व के राज-दरबार में भेजा; बाहरी दरवाजे के चौकीदार को मीठी बातों से प्रसन्‍न करके अपने काम का मूल्‍य नष्‍ट नहीं कि‍या।''
       धर्म के खि‍लाफ बोलना बहुत आसान है। धर्म के उपयोगी रूपों की हि‍मायत में पोंगापंथि‍यों,पंडि‍तों,महंतों आदि‍ की तरह बोलना और भी आसान है। लेकि‍न धर्म को मनुष्‍यत्‍व के नि‍र्माण के उपकरण के रूप में व्‍याख्‍यायि‍त करना बेहद मुश्‍कि‍ल काम है।
     जि‍न लोगों ने धर्म की आलोचना की ,धर्म का शोषण कि‍या उन सभी के वि‍चारों का समाज में आज क्‍या स्‍थान है ? इस तरह के लोग सैंकडों सालों से धर्म के बारे में लि‍ख रहे हैं। उनके वि‍चार आज कहीं पर भी प्रभाव छोडते नजर नहीं आते।
      जि‍नके लि‍ए धर्म मर चुका था, धर्म पोंगापंथ था,जनता के लि‍ए अफीम था। वे भी गुमनामी में जा चुके हैं। धर्म अभी भी सीना ताने खड़ा है। राज्‍य का धर्मनि‍र्मूल करने के लि‍ए जि‍न्‍होंने इस्‍तेमाल कि‍या आज वे कहां हैं ? धर्म कहां है ? इसे सहज ही अपनी आंखों से देख सकते हैं। धर्म के उपदेश असाध्‍य प्रतीत होते हैं। लेकि‍न सच्‍चा मनुष्‍य वही है जो असाध्‍य की साधना करता है। रवीन्‍द्रनाथ टैगोर लि‍खा है '' स्‍वल्‍पमप्‍यस्‍य धर्मस्‍य त्रायते महतो भयात्'' अर्थात् अल्‍प-मात्र धर्म महाभय से रक्षा कर सकता है।
       हिंदी में लेखकों के लीक से भि‍न्‍न वि‍चारों को, महान वि‍चारों को हमने कभी सम्‍मान की नजर से नहीं देखा। हिंदी लेखक बनि‍ए की गणि‍त लगाकर लि‍खता है,वह सच बोलते हुए हि‍चकता है । उसने लंबे समय से सच बोलना बंद कर दि‍या है। हिंदी लेखक ने सच बोलना जब से बंद कि‍या है । तब से हिंदी में वि‍चारों की कंगाली आ गयी है।
       हिंदी लेखक लि‍खता खूब है कि‍ लेकि‍न मायावी संसार पर लि‍खता है। सत्‍य पर नहीं लि‍खता। यही वजह है कि‍ वह अंत में 'तू-तू मैं -मैं' करने लगता है। दुश्‍मनी ठान लेता है। इस प्रक्रि‍या में वह सोचता है महान हो गया ,लेकि‍न होता एकदम उल्‍टा है हिंदी लेखक महान होने की बजाय ओछा होता चला गया है। एक दूसरे को नीचा दि‍खाना, नुकसान पहुंचाना, फतवे जारी करना,सृजन नहीं है। यह तो वि‍ध्‍वंस है। मनुष्‍यत्‍व से पतन है।
     भारतीय मार्क्‍सवादी जानते हैं मार्क्‍सवाद के वि‍कास के लि‍ए जि‍स एकांत साधना और ज्ञान के उच्‍चधरातल की जरूरत है वह उनके पास नहीं है। मार्क्‍सवाद सेमीनार और संगठनों की शाखाओ में पैदा नहीं हुआ था। महापुरूषों के वि‍चार अन्‍तरसाधना से पैदा होते हैं बाह्य साधना से पैदा नहीं होते।
     जब भी कोई वि‍चार,शास्‍त्र,दर्शन,राजनीति‍क दर्शन,राजनीति‍क एक्‍शन ,साहि‍त्‍य आदि‍ में भेद का शास्‍त्र बन जाता है तो वह अपने को बौना बना लेता है। मार्क्‍सवाद को हमने एक-दूसरे को बौना दि‍खाने के अस्‍त्र के रूप में इस्‍तेमाल कि‍या और स्‍वयं बौने बनते चले गए।
    भारत में धर्म के वि‍चारकों ने भेद के सभी कि‍स्‍म के रूपों की मुखालफत की है। उन्‍होंने सत्‍य को छोटा करके नहीं देखा है। सत्‍य को दैनंन्‍दि‍न प्रयोजनों से दूर रखकर चर्चा की है। सत्‍य को हमारे हिंदी आलोचकों और अध्‍यापकों ने प्रयोजन के खूंटे से बांध दि‍या है। सत्‍य को हमने समझा नहीं है सत्‍य के साथ हमने समझौते कि‍ए हैं। सत्‍य के साथ समझौतों का ही दुष्‍परि‍णाम है कि‍ आज हम डरपोक और आत्‍मवि‍श्‍वासवि‍हीन हो गए हैं। हमारी आत्‍मा को कोई लल्‍लू-पंजू वि‍चारक,आलोचकलेखकराजनेता अपहृत कर लेता है।
     धर्म के बारे में हमारी कभी भी सही समझ नहीं रही है। हमने पूजा-पाठ को ही धर्म मान लि‍या है। धर्म के आलोचकों ने इसी को धर्म मानकर इस पर वैचारि‍क हमला बोला है। भारत के धर्मनि‍रपेक्ष और मार्क्‍सवादी वि‍मर्श की यह सीमा है। धर्म पर मार्क्‍सवादि‍यों ने प्रयोजन के दायरे के परे जाकर कभी वि‍चार ही नहीं कि‍या। रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने लि‍खा है '' जो मनुष्‍य ब्रह्म को न जानकर केवल जप-तप में समय काटता है, 'अन्‍तवदेवास्‍य तद्भवति '- उसका सारा जप-तप नष्‍ट हो जाता है।''
    रवीन्द्रनाथ टैगोर पर महात्मा बुद्ध का गहरा असर था।  गौतम बुद्ध की समस्‍त साधना का मूलाधार है सत्‍य की खोज। सत्‍य को पाने की आकांक्षा का ही सुपरि‍णाम है कि‍ आज मानव सभ्‍यता इतने ऊंचे धरातल तक अपने को वि‍कसि‍त कर पायी है। सत्‍य की खोज ही वह बिंदु है जहां पर लेखक भी मनुष्‍यत्‍व के वि‍कास में अपना महत्‍वपूर्ण योगदान करता है। लेखक के पास सत्‍य न हो तो लेखक नहीं बन सकता। मनुष्‍यता की कुंजी सत्‍य के पास है अन्‍य कि‍सी के पास नहीं है।
     रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने लि‍खा है '' धर्म में ही मनुष्‍य का श्रेष्‍ठ परि‍चय मि‍लता है। धर्म का मनुष्‍य पर जि‍स मात्रा में अधि‍कार होता है उसी के अनुसार मनुष्‍य अपने आपको पहचानता है। सम्‍भव है कोई व्‍यक्‍ति‍ राजपुत्र होने पर भी अपने आपको भूल जाय। लेकि‍न देश के लोगों की ओर से बार-बार ताकीद की जानी चाहि‍ए। उसके पैतृक गौरव की याद दि‍लाना आवश्‍यक है ; उसे लज्‍जि‍त करना,यहां तक कि उसे दण्‍ड देना भी आवश्‍यक हो सकता है।लेकि‍न उसे मूर्ख कहकर समस्‍या को आसान करने की कोशि‍श वृथा है। यदि‍ वह मूर्ख की तरह व्‍यवहार करे तो भी सत्‍य को उसके सामने स्‍थि‍र करके रखना है। इसी तरह धर्म मनुष्‍य से कहता है: 'तुम अमृत के पुत्र हो,यही सत्‍य है'।‍ धर्म मनुष्‍य को कि‍सी तरह राह भूलने नहीं देता कि‍ 'मनुष्‍य' शब्‍द से कि‍तनी बड़ी -बड़ी बातों का बोध होता है। यही धर्म का प्रधान कार्य है।''
     रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने यह भी लि‍खा , '' शरीर के लि‍ए जैसे मस्‍ति‍ष्‍क है वैसे ही मानव समाज के लि‍ए धर्म है।धर्म का आदर्श ही मानव-प्रकृति‍ को अन्‍दर -अन्‍दर से सारी वि‍कृति‍यों के वि‍रूद्ध लडाई करने के लि‍ए प्रवृत्‍त करता रहता है।''
   जो लोग आए दि‍न धर्म की आलोचना करते हैं,उन्‍हें ध्‍यान में रखकर रवीन्‍द्रनाथ ने लि‍खा था '' हि‍साब-कि‍ताब करके धर्म को छोटा नहीं बनाया जा सकता , कोई उसे कि‍सी परि‍माण में माने या न माने, उसी को एकमात्र 'मानवीय' बताकर पूर्ण रूप से सामने रखना होगा।''

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