सोमवार, 29 मार्च 2010

फिल्मी संस्कृति की प्रमुख चुनौतियां- 4-

(हैदराबाद स्थित अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में दीप प्रज्वलित करते जगदीश्वर चतुर्वेदी)

हिन्दी सिनेमा में राजनीति आरंभ से ही रही है। हिन्दी सिनेमा की यह विशेषता है कि इसके जितने भी बड़े हीरो हैं वे किसी न किसी न किसी रुप में भारत की राजनीति के प्रधान नेता के भावों और विचारों को व्यक्त करते रहे हैं। फिल्मों में ग्राम्य जीवन,कृषिदासता,भूमि विवाद, जाति संघर्ष, भारत-चीन युद्ध,भारत-पाक विवाद, मुसलमानों का स्टीरियोटाईप, औद्योगिक संस्कृति,राजनीतिक संवृत्तियां,राजनीतिक विमर्श की चालू भाषा आदि चीजें हैं जो बार बार आती रही हैं।
    ग्लोबलाइजेशन में कलाओं के सामने क्या चुनौती है और फैशन उद्योग में क्या चलेगा,इसका फैसला फिल्मों में होता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो फिल्म सिर्फ मनोरंजन नहीं है बल्कि आधुनिककाल के उद्योग और राजनीतिक विमर्श के वातावरण निर्माण का उपकरण या माध्यम भी है।
     एक जमाना था सिनेमा में वाम की भाषा दिखती थी और आज वाम की प्रतिवादी भाषा नजर नहीं आती। अब सिनेमा की भाषा में दृश्यों के माध्यम से परवर्ती पूंजीवाद के दृश्यों का बाहुल्य नजर आता है। सिनेमा के दृशय ही हैं जो उसकी भाषा बनाते हैं। सिनेमा में राजनीति के आने के कारण फिल्मी कहानी का चरित्र भी बदला और नए किस्म की कहानी आई जिसके केन्द्र में नए किस्म का ढ्रामा भी आया। अब छोटी कहानी होती है लेकिन लोकेशन अर्थों से भरी होती है। जैसे नए भवन,सूचना की नई तकनीक, विशाल इमारतों और शानदार सड़कों का जाल। फिल्मी भाषा का नया संसार भूमंडलीकरण की ग्लोबल भाषा में आया है,इसे विज्ञापन से लेकर फिल्मों के दृश्यों में सहज देखा जा सकता है।     
   सिनेमा कैसे राजनीति करता है इसका आदर्श नमूना है फिल्मी कथानक,नायक-नायिका आदि में आया बदलाव। इस बदलाव का सुंदर नमूना है हीरो की बदली हुई प्रकृति। नायक संस्कृति दो नमूने हैं अमिताभ बच्चन (पूर्व शाहरुख) और शाहरुख खान। शाहरुख खान नव्य-उदारवाद का नायक है, इसका समूचा तानाबाना भूमंडलीकरण और आप्रवासी भारतीय और जाति अस्मिता से जुड़ा है। यह ऐसा नायक है जिसकी अतीत की स्मृतियां फिल्म कहानी से गायब हैं। पुराने फिल्मी हीरो के पास अतीत था,बचपन था। उसकी मनुष्य या व्यक्ति की पहचान थी। पुराने हीरो की जाति,क्षेत्रीय या धर्म की पहचान नहीं होती थी, (एकाध अपवाद छोड़कर)। इसके विपरीत नए हीरो के पास जाति-क्षेत्रीय पहचान है। मसलन् नया हीरो शाहरुख पंजाबी,समृद्ध और उच्चजाति का है। ये चीजें पुराने हीरो में गायब हैं। पुराने हीरो ने नाम देखें, ‘मि.अमर’, ‘ मि.आनंद’, ‘मि.राज’, ‘विजय’, ‘ जय’ ‘वीरु’ आदि। कुछ फिल्मों में मुस्लिम नाम आए ,जैसे ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘कुली’, ईसाइ रुप में ‘अमर अकबर एंथोनी’, ‘नसीब’ ,हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई के रुप में ‘जान जानी जनार्दन’ आयी,किंतु पुरानी फिल्मों में जाति पहचान नहीं थी।
    आर्थिक उदारीकरण आने के बाद फिल्मों में ‘राहुल’ और ‘प्रेम’ जैसे नायकों का चरित्र जाति और क्षेत्रीय पहचान को लेकर आता है,टिपिकल मल्होत्रा और खन्ना सामने आते हैं,समृद्ध पंजाबी के रुप में क्षेत्रीय पहचान सामने आती है। नायिका के रुप में ‘सिमरन’, ‘अंजलि’ सामने आती हैं और उनके साथ ओबेराय और ग्रेवाल जाति पहचान भी सामने आती है।
 पुराने हीरो के पास अतीत की स्मृतियां थीं जिनकी उसे जब याद आती थी तो वह प्रतिवाद करता था,बदला लेता था,हिंसा करता था,इसी तरह नायक-नायिका में अमीर-गरीब का बायनरी अपोजीशन भी था। सजनी अमीर साजन गरीब का फार्मूला खूब चला। गरीब हीरो में संपदा के प्रति घृणा का भाव था। हीरो यदि अमीर होता था तो उसकी सहानुभूति गरीबों के प्रति हुआ करती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि गरीब और गरीबी का संदर्भ फिल्मी कथानक का अनिवार्य हिस्सा था। लेकिन अब ऐसा नहीं होता। 
    नव्य उदारीकरण के  नायकों के खान बंधुओं की त्रिमूर्ति ने (शाहरुख,आमिर, सलमान) ने नया आख्यान रचा है। इसमें गरीब,किसान,मजदूर और गरीबी गायब है। ये ऐसे नायक हैं जिनका कोई अतीत नहीं है। नया हीरो गुस्सा नहीं करता,पर्तिवाद नहीं करता। ‘राहुल’ और ‘प्रेम’ को कभी गुस्सा नहीं आता। बल्कि जिससे गुस्सा करना चाहिए उससे सामंजस्य बिठाने पर ज्यादा जोर है। इन्हें सामाजिक असमानता परेशान नहीं करती। नए नायक का कोई इतिहास नहीं है,बचपन नहीं है। पुरानी स्मृतियां नहीं हैं। उसकी वैभव और संपदा से भरी जिंदगी है। चूंकि नए हीरो के पास अतीत की स्मृतियां नहीं हैं अतः उसे गुस्सा भी नहीं आता। उसका कोई इतिहास नहीं है। फलतः इतिहास के प्रति इसके अंदर केयरिंग का भाव भी नहीं है।
   ‘लगान’ फिल्म अपवाद है और उसमें भी ‘क्रिकेट राष्ट्रवाद’ को भुनाना प्रधान लक्ष्य है। इस फिल्म की जनप्रियता का दूसरा बड़ा कारण है संगीत। सामयिक सिनेमा में गोविन्दा अकेला नायक है जो लुंपन सर्वहारा का रुपायन करता नजर आता है।
     नई फिल्मों में आप्रवासी सभ्य ,सुसंस्कृत और संस्कारी है। गॉव के लोग बर्बर, असभ्य और खून के प्यासे चित्रित किए जा रहे हैं। इसे ‘शक्ति’ फिल्म में देख सकते हैं।
 (हैदराबाद स्थित अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के हिन्दी और भारतीय अध्ययन विभाग के द्वारा आयोजित सेमीनार सिनेमा और संस्कृति विषय पर जगदीश्वर चतुर्वेदी के भाषण पर आधारित) 







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