शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

फिलीस्तीन मुक्ति सप्ताह - फिलीस्तीन के ध्रुवतारे थे एडवर्ड सईद - हितेन्द्र पटेल





                                                                                        

           
प्रख्यात विद्वान एडवर्ड सईद (1935-2003) अब नहीं हैं । इनकी मृत्यु के बाद सारी दुनिया के बौद्धिक जगत में एक खालीपन का अहसास बहुतों को हुआ होगा। आज के उत्तर-आधुनिक दौर में जहां विचारों और विचारकों के हस्तक्षेप की महत्ता कम होती दीखती है एडवर्ड सईद की उपस्थिति और हस्तक्षेप का महत्त्व वे तमाम लोग समझते हैं जो अमरीकी साम्राज्यवाद का विरोध करते रहे हैं। सईद की अमरीका में उपस्थिति इस बात के लिए आश्वस्त करती थी कि इस्राइली समर्थक अमरीकी मीडिया के चौंधिया देने वाली ताकत के मुकाबले खड़ी रहने वाली यह आवाज दब नहीं सकती । अमरीकी ताकत का असली अंदाजा उन लोगों को होता है जो फिलीस्तीन जैसी 'आशा' और प्रेरणा के साथ अमरीकी 'प्रौपेगैण्डा' के सामने खड़े रहे हैं। निश्चय ही सईद इस 'आशा' की सबसे प्रतिनिधि आवाज थे।
            जिन लोगों से एडवर्ड सईद का परिचय थोड़ा कम है उनकी सुविधा के लिए उनके बारे में कुछ तथ्य इस प्रकार हैं। अब्राहिम वडी (Wadie) एक फिलीस्तीनी प्रोटेस्टैंट ईसाई थे। उनका जन्म 1895 में हुआ था। 16 वर्ष की आयु में उन्हें ऑटोमन साम्राज्य की सेना में भर्त्ती कर लिये जाने के भय से बाहर भेज दिया गया। लिवरपूल होते हुए अब्राहिम अमरीका पहुंचे जहां वे विलियम सईद बन गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांस में रहकर अमरीका की ओर से सैनिक सेवा में योगदान किया। उन्हें अमरीकी नागरिकता मिल गयी लेकिन 1919 में वे वापस अपने वतन फिलीस्तीन लौट गये । वहां अपने चचेरे भाई की कम्पनी - फिलीस्तीन ऐडुकेशन कंपनी में बराबर के पार्टनर बन गये। 1929 में वे मिस्र गये। वहीं उन्होंने अपनी एक कंपनी बनायी - स्टैंडर्ड स्टेशनरी कंपनी। विलियम वडी (Wadie) ने व्यापार में बहुत सफलता पायी और उनकी कम्पनी की शाखाएं काहिरा, एलेक्जेन्ड्रिया और कई अन्य जगहों पर खोली गयीं।
            विलियम और उनकी पत्नी ने काहिरा में होते हुए भी यरूसलम से लगातार सम्पर्क बनाये रखा। वहां वे जाते रहते थे और उनकी इच्छानुसार उनकी संतान का जन्म यरूसलम में ही हुआ। 1 नवम्बर 1935 को यरूसलम में पुत्र के उत्पन्न होने पर विलियम की पत्नी ने उसका नाम रखा - एडवर्ड । वे प्रिंस ऑव वेल्स को बहुत पसंद करती थीं और उन्हीं के नाम पर उन्होंने अपने पुत्र का नामकरण किया था।
         एडवर्ड का बचपन और प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा काहिरा में ही हुई हांलाकि विलियम परिवार यरूसलम से अपना सम्पर्क बनाये हुए था। एडवर्ड की शिक्षा-दीक्षा एकदम अंग्रेजी साहबों के बच्चों की तरह हुई। काहिरा में वे जिस अमरीकी स्कूल में पढ़ते थे उस स्कूल में हैंडबुक के प्रथम पृष्ठ पर लिखा होता था - ''अंग्रेजी इस स्कूल की भाषा है। जो विद्यार्थी अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य भाषा में बातें करते पकड़े जायेंगे उन्हें दंड दिया जायेगा।''
इस स्कूल के सभी शिक्षक अंग्रेज थे। एडवर्ड सईद लिखते हैं कि उस स्कूल में किसी भी छात्र की भाषा अंग्रेजी नहीं थी। उन सभी विद्यार्थियों (जो अर्मेनियन, ग्रीक, इटालियन, यहूदी और तुर्क थे) की अपनी-अपनी भाषाएं थीं पर उनका प्रयोग विद्यालय में निषिद्ध था। हांलाकि हमलोग आपस में हमेशा अरबिक या फ्रैंच में बातें करते थे।''

सईद ने लिखा है कि भाषा, संस्कृति, नस्ल और जाति ('एथनिक') के आधार पर हमें ब्रिटिश लोगों से कमतर समझा जाता था। इस कमतरी के एहसास और अपनी संस्कृति के प्रति दमनकारी पश्चिमी सांस्थानिक दबावों से सईद इस स्कूल के माध्यम से परिचित हुए। बाद में मशहूर विक्टोरिया कॉलेज में दाखिल हुए जहां उनके सहपाठियों में थे - जार्डन के किंग हुसैन और माइकेल शैलहॉब (Shalhoub) माइकेल शैलहॉब बाद में ओमर शरीफ के नाम से विख्यात अभिनेता हुए।
            अपनी भाषा और संस्कृति से जुड़े रहने की प्रवणता पिता विलियम की तरह एडवर्ड में भी थी। एडवर्ड सईद ने चालीस वर्षों तक अमेरिका में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने के बाद भी कहा था कि उन्हें मालूम नहीं कि उनकी पहली भाषा कौन सी है - अंग्रेजी या अरबी। वे लिखते हैं ''जब भी मैं अंग्रेजी का कोई वाक्य बोलता हूं इसकी अरबी मेरे दिमाग में ध्वनित (echo) होती है।''
            1951 में उन्हें विक्टोरिया कॉलेज से निकाल दिया गया। कारण था अंग्रेज शिक्षकों और छात्रों के साथ दुर्व्यवहार । उस समय तक मिश्र की राजनैतिक परिस्थितियां बदल रही थी। (1952 में मिश्र स्वाधीन हुआ और नासिर सत्ता में आये।) 1951 की सितंबर में
विलियम ने एडवर्ड को मैसैसचर्स (अमरीका) के एक स्कूल में दाखिला करा दिया। एडवर्ड सईद ने लिखा है - ''जिस दिन मेरे माता पिता स्कूल के गेट पर मुझे छोड़कर अपने देश चले गये वह दिन मेरे जीवन का सबसे दुःखद दिन था।''
            अमरीका में आने के बाद एडवर्ड के लिए एक नया माहौल सामने था। उसका नाम था - एडवर्ड, जातीयता थी - फिलीस्तीनी और वह अरबी बोलता था। एडवर्ड ने उन दिनों को याद करते हुए लिखा है कि उनकी समझ में नहीं आता था  कि वे क्या करें। किसी ने उन्हें बताया कि एक शिक्षक है जो मिस्र से आया है। संयोग से उस शिक्षक से एडवर्ड के परिवार का सम्पर्क रहा था। एडवर्ड उनके पास गया और अपना परिचय देने के बाद उनके अरबिक बोलने लगा शिक्षक ने उसे तुरन्त टोका और कहा - ''यहां अरबी में बात मत करो। वहां की चीज मैं वहीं छोड़ कर आया हूं।''
            एडवर्ड पढ़ाई में अच्छे थे इसीलिए धीरे-धीरे आगे बढ़ते गये। बाद में वे यूनीवर्सिटी में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने लगे। 1963 में उनका परिवार मिस्र से लेबनान चला गया। इस बीच सईद का अध्ययन चलता रहा। इस प्रक्रिया में वे एक 'पश्चिमी' व्यक्ति बन गये जिसने साहित्य, संगीत और दर्शन का व्यापक अध्ययन किया था। पर उन्होंने लिखा है - ''इन सबके साथ मेरी परम्परा (Tradition) का कोई सम्बंध नहीं था।'' अपनी परम्परा के सन्दर्भ में अपने ज्ञान को रखने का कार्य उन्होंने कुछ दिनों बाद किया।
            1967 में सईद समेत बहुत सारे लोगों को झटका लगा। अरब-इजरायल युद्ध में इजराइल की विजय के बाद फिलीस्तीनी राष्ट्रवाद ने जोर पकड़ा जिसका मुख्य केन्द्र बना - जॉर्डन उस दौरान सईद के अनुभवों ने उसे बहुत कुछ सिखाया। अमरीका में सभी लोग इस्राइल की विजय का जश्न मना रहे थे। गोल्डा मेयर (Meir) ने 1969 में कहा था - ''कोई भी फिलीस्तीनी नहीं है।'' सईद के अनुसार इतिहास को दबाने की कोशिश की जा रही थी। सईद और उनके 'गुरू और साथियों' के लिए कुछ कर गुजरने का समय गया था।
            एडवर्ड सईद ने फिलीस्तीन के प्रश्न पर लिखना शुरू किया। उन्हें लगने लगा कि पश्चिमी ज्ञान की पूरब संबंधी अज्ञानताओं के खिलाफ लिखना चाहिए। अपनी संस्कृति और इसके इतिहास का अध्ययन करना उन्हें जरूरी लगा। 1972 में एक वर्ष की छुट्टी लेकर उन्होंने अरब के दर्शन और साहित्य का अध्ययन किया। इसने उन्हें 'ओरियन्टलिज्म' की प्रेरणा दी। 1978 में 'ओरियन्टलिज्म' के छपने के बाद तो उन्हें विश्र्वव्यापी ख्याति मिल गयी। तब से लेकर मृत्यु पर्यन्त वे लाखों लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बने रहे। कई पुस्तकें लिखीं और फिलीस्तीन की संघर्षशील जनता की आवाज़ से शुरू करके तृतीय विश्र्व की प्रमुख आवाज़ के रूप में भी चिन्हित हुए।
            बेहद मिलनसार, भावुक, परिश्रमी सईद ने संगीत पर भी पुस्तकें लिखी हैं और वे खुद एक कुशल संगीतज्ञ भी थे।
            1993 में उन्हें डाक्टरों ने बताया कि उन्हें ल्यूकेमिया है और वे अब अधिक दिनों तक नहीं जी पायेंगे। तब जीवट वाले सईद ने कहा था कि मुझे 10 साल और मिल जाये तो मैं अपने बारे में खास तौर पर अपने शुरुआती दिनों के बारे में कुछ लिखूंगा। खुशकिस्मती से उन्हें ठीक दस साल मिले। इस दौरान वे लगातार लिखते रहे। पूरी जीवटता और निर्भीकता के साथ। इस बीच वे अपने देश भी जाते रहे, इस्राइल के विरूद्ध सभाओं में भी शामिल होते रहे, अमरीका की साम्राज्यवादी नीतियों की तीखी आलोचना भी करते रहे और डाक्टरों की हिदायतों के बावजूद लगातार सक्रिय रहे।
            एडवर्ड सईद अमरीका में सक्रिय एक षडयंत्र को साफ-साफ देख समझ रहे थे जहां अमरीकी प्रभुत्व की लालसा में पूरे इस्लामी जगत को एक दुश्मन के रूप में देखा जा रहा था। एडवर्ड सईद ने 9/11 सितंबर 2001 की घटना के बाद अमरीकी रवैये पर दुःख प्रगट करते हुए कहा था कि इस्लाम एक नहीं है जैसे कि अमरीका एक नहीं है। इस्लाम के भी कई रूप हैं। जैसे कि अमरीका के भी कई रूप हैं। सईद ने लिखा है कि अमरीका कैप्टन वहाब की तरह का आचरण कर रहा है जो मॉबी डिक को मारने की जिद के कारण खुद अपने को भी नष्ट करने की ओर बढ़ रहा है।

            सईद का भारत के साथ लगाव था। जब वे कुछ साल पहले भारत आये थे तो जहां जहां वे गये उन्हें, अमरीकी साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ लोकतांत्रिक तरीके से लड़ने की प्रेरणा देते रहे। भारत के मामले में एक ट्रैजेडी यह है कि जब भी ई.पी. टॉम्सन, चॉम्स्की, एडवर्ड सईद जैसे विद्वान भारत आते हैं उन्हें असली भारत से रूबरू होने नहीं दिया जाता। दिल्ली, कलकत्ता और मद्रास के अंग्रेजी (जिसमें वामपंथी कहे जाने वालों की संख्या भी कम नहीं है) ऐसे घेर लेते हैं कि उन्हें जरूर लगता होगा कि वे दिल्ली, कलकत्ता में नहीं किसी अमेरिका या यूरोप की यूनीवर्सिटी में उत्साही लोगों से बातें कर रहे हैं। देशी भाषाओं के मीडिया, संस्थानों और बुद्धिजीवियों को इस ओर ध्यान देना चाहिए। इन सबके बावजूद टाम्सन, चॉम्स्की और सईद की आंखों ने बहुत कुछ देख-सुन लिया। सईद ने कलकत्ता में एक भाषण देते हुए कहा कि भारत का स्वतंत्रता संग्राम उसी समय शुरु हो गया जिस समय अंग्रेजी ताकत ने यहां पांव धरे।

यह बात गौरतलब है कि सईद की पुस्तक 'ओरियन्टलिज्म' (1978) की प्रेरणा ने भारत के इतिहासकारों के एक बड़े मंडल - 'सब-आल्टर्न' -को वैचारिक आधार और दृढ़ता दी। 'ओरियन्टलिज्म' के बगैर 'सबआल्टर्न स्टैडीज' की कल्पना कठिन है।
            सईद ने कई पुस्तकें लिखीं, सैकड़ों लेख लिखे, असंख्य जगहों पर निर्भीक होकर बोलते रहे लेकिन उन्हें इतिहास 'ओरियन्टलिज्म' के लेखक के रूप में ही याद करेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाना चाहिए कि इस पुस्तक का लगभग 'ग़लत पाठ' ही
सईद की व्यापक प्रसिद्धि का कारण बना। सईद को विख्यात और 'कुख्यात' इसी पुस्तक ने बनाया। इस पुस्तक के बारे में पर्याप्त चर्चा हुई है लेकिन इसको ठीक तरह से नहीं पढ़ा जाता है।

युवा सईद इस बात से परेशान थे कि अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दियों ने 'पूरब' को 'पूरब' बनाया। ये चूंकि 'पश्चिम' की सदियां थी इस पूरी प्रक्रिया को 'पश्चिम' ने नियंत्रित किया। कुल मिलाकर 'पूरब' का एक पाठ बना जिसे 'पूरब' के आधुनिक लोगों ने भी मान लिया। यह दमनकारी पाठ साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा नियंत्रित था। यानि हमारा 'आधुनिक ज्ञान' भी साम्राज्यवादी निर्मिति का ही एक अंग है।
            'ओरियंटलिज्म' ने अधिकतर उन बातों को ही अकादमिक तरीके से पेश किया है जिसे अरब और भारत जैसे देशों के कई विद्वान कहते रहे थे। इस पुस्तक में कई त्रुटियां भी रही हैं। एजाज अहमद ने 'इन थ्योरी' में इस पर विस्तार से लिखा भी है। दो 'त्रुटियों' की ओर इशारा जरूरी है।
प्रथम - इस पुस्तक ने पश्चिम को कर्त्ता (subject) के रूप में देखा। मानो पूरब और उसके सारे संस्थानों में कोई ताकत ही नहीं थी। पश्चिम आया और हमें बदल गया। और हम ताकते रहे। यह दृष्टि ग़लत है। पूरब के संघर्ष को इतिहास ने दर्ज नहीं किया इसीलिए शायद आज हम उससे परिचित नहीं हैं। द्वितीय - अंजाने ही 'ओरियंटलिज्म' ने अरब-जगत में चल रहे इस्लामी जेहादियों को मजबूती दे दी। पश्चिम ओरियंटलिज्म में 'विलेन' और नायक दोनों बन कर उभरा।
सईद ने बाद में 'कल्चर एंड इम्पीरियलिज्म' लिखकर और अपने साक्षात्कारों में लगातार इस बात को दोहराया कि वे युवा थे, कुछ उद्देश्यों को ध्यान में रखकर लिख रहे थे और उनके 'गलत पाठ' को ज्य़ादा महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। भारत में उनके दिए गये एक लम्बे इन्टरव्यू में उन्होंने इस पर खुल कर चर्चा की। यह इन्टरव्यू 'बुक रिव्यू' में छपा भी था।
            इन सबके बावजूद सईद और 'ओरियन्टलिज्म' एक दूसरे के पर्याय ही बने रहे। यह विडंबना पूर्ण है, लेकिन इसके पीछे भी कई कारण रहे हैं जिसकी चर्चा यहां अप्रासंगिक होगी।
            सईद की विद्वता और निर्भीकता के सीधे दर्शन उनके 'एक्टिविज्म' में होते हैं। फिलीस्तीन के लिए संघर्ष में योगदान करने वाले सईद ने भले ही इस संघर्ष को वाणी दी लेकिन इस संघर्ष को शुरू करने वाले विद्वान इब्राहिम अबू लोग़द हैं। सईद ने लोग़द को अपना गुरू कहा है। अपने गुरू (अंग्रेजी में लिखे लेख में सईद ने उन्हें 'माई गुरू' कहा है) की मृत्यु के बाद सईद ने उन्हें श्रद्धांजलि दी है और उनके साथ ही हाल ही में विदा हुए इकबाल अहमद को भी याद किया है। इन दोनों के साथ सईद का सबसे गहरा रिश्ता रहा था। इकबाल अहमद बिहारी थे। इस लेख में सईद के उस दौर से हमारा परिचय होता है जिसके बीच से 'ओरियन्टलिज्म' का जन्म हुआ।
            सईद मार्क्सवादी थे या नहीं यह खुद उनके लिए भी कहना कठिन था। कुछ दिन पहले एक इन्टव्यू में उन्होंने कहा था कि मेरे लिए मार्क्सवादी होना और होना महत्त्वपूर्ण नहीं है। मैं हमेशा स्वतंत्र बुद्धिजीवी के रूप में रहना चाहता हूं। राजनीति से प्रेरित बुद्धिजीवियों (जिन्हें वह 'politically invested' बुद्धिजीवी कहते हैं) ने अपनी स्वतंत्रता खोकर नुकसान किया है। हैबरमास की तरह सईद भी विद्वानों के विमर्श और राजनैतिक विमर्श को मिला देने के पक्ष में नहीं थे। वे फूको के 'पावर डिस्कोर्स' (शक्ति विमर्श) से भी प्रभावित थे और अडोर्नो और ग्राम्शी से भी। आज के इस दौर में स्वतंत्र और निर्भीक बौद्धिक कर्म के समर्थक सईद ने सारी दुनिया की संघर्षशील मानवतावादी ताकतों को म.जबूत करने में जिस जीवट का परिचय दिया उसने उन्हें दुनिया की सबसे ताकतवर आवाज बनाया। वे अपने समय के एक नायक थे।
 (  लेखक- हितेन्द्र पटेल, एसोसिएट प्रोफेसर, इतिहास विभाग, रवीन्द्रभारती विश्वविद्यालय, कोलकाता)


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