गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

वर्चुअल संस्कृति को समर्पण चाहिए



वर्चुअल में प्रत्येक घटना चाहे वह सुख की हो या दुख की। सब कुछ निर्मित है। इससे आप बच नहीं सकते। पश्चाताप प्रकट  नहीं कर सकते। वर्चुअल में प्रत्येक चीज अनैतिक और संवेदनात्मक है। सिर्फ शरीर ही नहीं बल्कि इच्छाशक्ति भी संवेदनात्मक और अकस्मात की शक्ल लेती है। अभिनेता अपने अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। फलत: वे जिम्मेदारी भी नहीं लेते।  अपनी इच्छा और आकांक्षाओं का क्रमश: पालन करते हुए खुश हैं। चीजों की पीड़ादायक दुर्घटनाओं का सम्मान करते हुए खुश हैं। वे सिर्फ अस्तित्व रक्षा के खास नियमों को देखते हैं,ये वे नियम हैं जिनको पहले उन्होंने वैधता प्रदान नहीं की।
   वर्चुअल का लक्षण है, अस्तित्व है किंतु  स्वीकृति के बिना। इससे हमें संतोष मिलता है। क्योंकि हम उसमें विश्वास नहीं करते।  इससे स्वायत्ताता का भ्रम पैदा होता है। यथार्थ वैध अवैध, प्रामाणिक अप्रामाणिक के परे चला जाता है। अब वर्चुअल सत्य है सत्य वर्चुअल है। वर्चुअल को समर्पण चाहिए। अनालोचनात्मक स्वीकृति चाहिए। आज हम आजाद नहीं हैं और न हमारी इच्छाएं ही स्वतंत्र हैं। एब्सर्डिटी साफतौर पर देख सकते हैं। अमूमन ऐसी परिस्थितियों में घिरे होते हैं , ऐसे विषयों पर फैसला ले रहे होते हैं जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते  या कुछ भी जानना नहीं चाहते। अन्य की शक्ति निज के जीवन को नियंत्रित कर रही है,उसका दुरूपयोग कर रही है। अब न इच्छा है और न यथार्थ ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तुओं को पकड़ न पाने का निरंतर विभ्रम है और साथ ही यह भी विश्वास कि हम पकड़ लेंगे,समझ लेंगे। चीजों के बारे में विभ्रम और उनकी रेशनल त्रासदी हमारी बौध्दिकता के साथ मुठभेड़ कर रही है।


वर्चुअल रियलिटी में संकेत का विभ्रम खत्म हो जाता है। सिर्फ उसका आपरेशन रह जाता है। सत्य और असत्य के बीच आनंदायी अभेद,यथार्थ और संकेत के बीच का अभेद पैदा हो जाता है। हम निरंतर अर्थ पैदा कर रहे हैं। प्रासंगिक चीजें पैदा कर रहे हैं, यह जानते हुए कर रहे हैं कि ये सब कुछ नहीं बचेगा। प्रासंगिक चीजें भी एक अवस्था के बाद अप्रासंगिक हो जाएंगी। विभ्रमों को अर्थवान मानना सबसे बड़ा विभ्रम है। यह जगत के विध्वंस का प्रधान कारण है।

यह तरंगों और कोड का युग है। तरंगों से जुड़ते हैं कोड से खुलते हैं। समाचार ,संवाद,संपर्क, व्यापार,युध्द,संस्कृति आदि सब कुछ रेडियो तरंगों की देन हैं।  तरंगे हमारे जीवन का सेतु हैं। तरंगें न हों तो हम अधमरे हो जाएं। आज तरंगें ही सत्य है और सत्य ही तरंग है। तरंगें भ्रम पैदा करती हैं। स्थायित्व का भ्रम पैदा करती हैं। तरंगें संतुलन पैदा कर सकती हैं और तरंगें अतिवाद अथवा अतिरंजना में डूबो सकती है। तरंगों में सब कुछ चरम पर घटित होता है। तरंग का सार है अतिवाद,चरमोत्कर्ष,अतिरंजना। अंत है विलोम। 
          तरंगों के जमाने में समानता,मानवधिकार आदि वायवीय हैं। इन सवालों में दर्शकों की दिलचस्पी घट जाती है। ये सिर्फ नजारे अथवा तमाशे की चीज बन जाते हैं। वर्चुअल ने इन सबको नजारा बना दिया है। हम सबको तमाशबीन बना दिया है। नागरिक को तमाशबीन बना दिया है। तमाशबीन के कोई अधिकार नहीं होते। तमाशा देखा और खिसक लिया। तमाशबीन का किसी से लगाव नहीं होता। वह निर्वैयक्तिक होता है। आज तमाशा वर्चुअल है और वर्चुअल तमाशा है। सूचना बेजान और देखने वाला भी बेजान। निर्वैयक्तिकता का चरम वर्चुअल की धुरी है। अपनी ढपली अपना राग इसका मूल मंत्र है।
         तरंगों के कारण कथनी और करनी में आकाश पाताल का अंतर आता है। जिसने कभी कोई चित्र नहीं बनाया , चित्रकला नहीं सीखी वह कलाप्रेमी और कलामर्मज्ञ का स्वांग करता नजर आता है। जिसकी राजनीति में आस्था नहीं है वह सत्ताा और राजनीति का सबसे बड़ा भोक्ता है। जिसने दर्शन नहीं पढ़ा वह दार्शनिक मुद्रा में डूबा नजर आता है। जो कभी सच नहीं बोलता वह सत्य का पुजारी नजर आता है। अयथार्थ या यथार्थ का अंश विराट और यथार्थ छोटा नजर आता है। सच झूठ और झूठ सच नजर आता है। प्रत्येक चीज सिर के बल खड़ी नजर आती है। सीधी चीज उल्टी और उलटी चीज सीधी नजर आती है। प्रत्येक चीज विलोम दिखती है। यही वर्चुअल का विचारधारात्मक चरित्र है।
      अब प्रत्येक चीज में वर्चुअल मिल गया है। अच्छे -बुरे,पानी और शराब आदि सभी में वर्चुअल आ गया है। वर्चुअल के स्पर्श से सब कुछ कपूर होगया है। अब मौत भी सुंदर लगने लगी है। हत्या में आनंद मिलने लगा है। दुख में आनंद मिलने लगा है, दुख मनोरंजन देने लगा है। वर्चुअल ने सब चीजों को नकल और आनंद में बदल दिया है। चीजों की सतह की महत्ताा बढ़ गयी है। अब सत्य की आत्मा महत्वपूर्ण नहीं है। सत्य की सतह महत्वपूर्ण है। सतह को ही मर्म मान बैठे हैं।
   आज मनुष्य के पास समय का अभाव है। समय के अभाव के कारण मनुष्य हमेशा मानसिक तौर पर समयाभाव में रहता है। समय का अभाव कालान्तर में स्थान के अभाव में रूपान्तरित होता है। आप जहां से चले थे एक अर्सा बाद फिर वहीं पहुँच जाते हैं। अब स्थान समय में तब्दील हो जाता है। इसे बदला नहीं जा सकता।
   




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