गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

इस्लाम,मध्यपूर्व ,बहुराष्ट्रीय कारपोरेट मीडिया और एडवर्ड सईद -5-


अमरीकी मीडिया में खासकर कार्टूनों में आमतौर पर दो तरह की प्रस्तुतियां मिलती है। इनमें एक तरफ 'अच्छे' लोग होते हैं दूसरी ओर 'बुरे' अथवा शैतान होते हैं। 'अच्छे' हमेशा अमरीकी होते हैं। जब कि 'बुरे' विदेशी होते हैं। इन कार्टूनों में हमलावर पहले हमला करता है ,बच्चे हमलावर हरकत को आत्मरक्षा में उठाया कदम मानकर चलते हैं। कार्टूनों की इमेजों में ध्रुवीकृत दो तरह की इमेज नजर आती हैं। इनमें एक तरह अबाधित हीरो है जिसका लक्ष्य है रूढ़िबध्द किस्म के शत्रु या शैतान को परास्त करना। इस क्रम में इमेजों में नस्लीवादी लक्षणों को भी समाहित कर लिया जाता है। नस्लवादी लक्षण यह है कि पराया अथवा अन्य अथवा विदेशी हमेशा परायी अथवा अटपटी शैली में भाषिक प्रयोग करता नजर आता है। इस तरह का प्रयोग करने वाले बुरे लोग होते हैं।
      क्रांतिकारी 'अन्य' को 'हम' और तुम' के बायनरी अपोजीशन के रूप में पेश किया जाता है। इसमें जो 'अन्य' है वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है।  राष्ट्रीय इमेज को क्षतिग्रस्त कर सकता है। इससे तत्काल सामाजिक व्यवस्था को खतरा हो सकता है। जब सामाजिक अव्यवस्था को खतरा पैदा होता है तो व्यक्तियों के ऊपर जबर्दस्त दबाव होता है। इससे भावनात्मक अपदस्थीकरण  होता है। इमेज प्रस्तुतियों के जरिए किसी व्यक्ति की अमानवीय इमेज बनायी जाती है तो यह कार्य कई स्तरों पर किया जाता है। पहले व्यक्ति को अमानवीय रूप में पेश किया जाता है तो दूसरी ओर वस्तु को अमानीयकृत रूप में पेश किया जाता है।
        जब शत्रु निर्मित किया जाता है तो उसे उन्मादी के तौर पर निर्मित किया जाता है उसे सत्ताा के बाहर सत्ताा के खिलाफ षडयंत्रकारी के रूप में निर्मित किया जाता है। असल में शत्रु के कई रूप हो सकते हैं, जैसे , उन्मादी शत्रु, भगवान का शत्रु, बर्बर शत्रु, बलात्कारी शत्रु, पशु,कीड़ा,सरीसृप,कमीना के रूप में शत्रु, मृत्यु के रूप में शत्रु। सृजन के केन्द्र में शत्रु के आने का अर्थ यह भी है कि अब विरेचन की संभावनाएं खत्म हो गयी हैं, विरेचन की प्रक्रिया शुरू करने में शत्रु इमेज मदद करती हैं। मसलन् अन्य से लड़ने में राष्ट्रवाद मदद करता है। शत्रु की मौजूदगी का  अर्थ  है संरक्षक के रूप में जो चरित्र अथवा इमेज उपलब्ध थीं वे अस्वीकार कर दी गयी हैं अथवा अप्रासंगिक बन गयीं अथवा उनके प्रति अनास्था पैदा हो गयी है। इसका अर्थ है  शत्रु की इमेजों की प्रस्तुतियों के जरिए वे भाव पेश किए जा रहे हैं जिन्हें लोग व्यक्त नहीं कर पाए हैं। इस क्रम में एक ग्रुप की तुलना में दूसरा ग्रुप ज्यादा मानवीय नजर आता है। उल्लेखनीय है जब भी शत्रु इमेज पेश की जाती है तो उसके साथ राष्ट्रीय इमेज के लक्षणों का भी इस्तेमाल किया जाता है। अमूमन राष्ट्रीय इमेज विखंडित अथवा भ्रष्ट पहचान के रूपों को सामने लाती है।
       इमेजों का संसार संस्कृति से जुड़ा है और संस्कृति तयशुदा व्यवस्था के तहत ही व्याख्यायित की जा सकती है। वह वर्गीकृत व्यवस्था के साथ जुड़ी होती है। इमेजों के जरिए संस्कृति की प्रतीकात्मक परिधि व्यक्त होती हैं। ये परिधि ही है जो वर्गीकरण को शुध्द रखती है। इसके चलते शक्तिशाली और कमजोर का भेद दिखाई नहीं देता अथवा हम उस भेद को भूल जाते हैं। क्योंकि वह सांस्कृतिक व्यवस्था के लिए खतरा पैदा करने लगता है। मानवीय जीवन के लिए जरूरी है कि स्वीकृत जीवनशैली के रूपों को गु्रप विशेष में प्रस्तावित किया जाए ,फलत: व्यवस्था स्वाभाविक नजर आती है। इसके कारण जो अव्यवस्था पेश की गई है वह हाशिए पर चली जाती है। इसके कारण जो अशुध्द और असामान्य है उसे हम संस्कृति से बहिष्कृत कर देते हैं। एडवर्ड सईद ने ग्राम्शी की धारणा के आधार पर लिखा है कि संस्कृति हमेशा नागरिक समाज में मिलती है। वहां पर इसके संस्थानों के विचारों का अन्य पर प्रभाव प्रभुत्व के जरिए नहीं बल्कि सहमति के जरिए होता है। ओरिएण्टलिज्म का विचार यूरोप के विचार के बाहर नहीं है। सामूहिक तौर पर यूरोपीय अस्मिता को 'हम' के रूप में उन सबके खिलाफ रेखांकित किया जाता है जो गैर यूरोपियन हैं। यूरोपियन अस्मिता को तुलनात्मक तौर पर गैर यूरोपीय अस्मिताओं ,संस्कृति और लोगों की तुलना में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। सईद ने लिखा  यूरोपीय लोगों ने इसी अर्थ में ओरिण्टलिज्म को राजनीतिक, समाजशास्त्रीय, सैन्य, विचारधारात्मक और वैज्ञानिक तौर पर उत्तार-इनलाइटेनमेंट युग के नाम से निर्मित किया।
     मीडिया प्रस्तुतियों में बायनरी अपोजीशन के जरिए किस तरह 'अन्य' को हमारे ऊपर थोपा जा रहा है। 'अन्य' किस तरह सत्ता या पावर की संरचनाओं के जरिए परिभाषित होकर आ रहा है। ऐसी अवस्था में 'अन्य' के सिर्फ आर्थिक शोषण और कायिक उत्पीड़न को ही नहीं बल्कि उसके बृहत्तर सांस्कृतिक प्रतीकात्मक दायरों को भी विश्लेषित किया जाना चाहिए। एस.हाल के शब्दों में वर्चस्व विचारधारात्मक शक्ति है और वह जब आरोपित की जाती है तो किसी न किसी के जरिए प्रस्तुतियों में सत्ताा का प्रतिनिधित्व करती है।
    मौजूदा मासमीडिया के दौर में जिस तरह की उन्नत संचार तकनीक हमारे पास है उसके चलते सत्ता के द्वारा प्रभावशाली प्रस्तुतियों के दुरूपयोग की संभावनाएं बढ़ गयी हैं। सामयिक दौर चूंकि प्रस्तुतियों का दौर है अत: वह सामूहिक इमेजों की वर्षा करता है। ऐसी अवस्था में खबरों के दुरूपयोग की संभावनाएं बहुत ज्यादा बढ़ गयी हैं। खबरों की इमेजों के जरिए लोगों के नजरिए का निर्माण किया जाता है। इन प्रस्तुतियों में शत्रु को अमानवीय बनाकर पेश किया जाता है। उसका 'अन्य' के साथ सांस्कृतिक अंतर दरशाते हुए पेश किया जाता है। ऐसे में मीडिया प्रस्तुति के प्रतिनिधि के रूप में सामने आता है। जनमाध्यमवेत्ताओं ने विस्तार के साथ विभिन्न पहलुओं से मीडिया प्रस्तुतियों को विश्लेषित किया है।
          मसलन् लिबरेटेरियन थ्योरी का मानना है सभी मनुष्य विवेकवान होते हैं और सरकार होती है व्यक्तियों की सेवा के लिए। इसलिए नागरिक को मुद्दे पर सबकी बातें सुननी चाहिए जिससे सत्य को झूठ से अलग किया जा सके। सोशल रेस्पांसविलटी थ्योरी का मानना है प्रेस को सरकार और अन्य संस्थानों एवं एजेंसियों की आलोचना का अधिकार है। वह लोकतंत्र की रक्षा और सामाजिक जरूरतों के बारे में अपनी भूमिका अदा करता है। इस मॉडल को ज्यादातर पश्चिमी समाजों में लागू किया जाता है। खासकर जिन समाजों में मीडिया को चौथा खंभा माना जाता है। जहां पर मीडिया की भूमिका वाचडाग अथवा चौकसी करने वाले की है। इसके तहत मीडिया का काम है सूचना प्रदान करना जिससे लोकतांत्रिक ढ़ंग से निर्णय लेने में सुविधा हो। जनता की समस्याओं को समझा जा सके। यह हेरोल्ड लॉसवैल का नजरदारी मॉडल है। इस मॉडल के तहत समुदाय के लिए आने वाले खतरों और संभावनाओं का उद्धाटन किया जाता है। समाज के विभिन्ना तबकों के साथ उसका क्या संबंध है उसकी ओर भी ध्यान दिया जाता है और समाज की विभिन्न पीढियों में किस तरह मूल्यों का प्रसार किया जाए इस पर जोर रहता है।
    इन दोनों मॉडलों की उपेक्षा करते हुए एक तीसरा मॉडल प्रचलन में है जिसे गार्ड डॉग मॉडल कहते हैं इस मॉडल का मानना है मीडिया प्रभुत्वशाली लोगों के विचारों का प्रतिनिधित्व करता है और व्यवस्था के पास इस समूह को चुनौती देनी की शक्ति नहीं होती। चौथाखंभा की धारणा अयथार्थवादी है। क्योंकि वे एक ही हित को यानी जनता के हित को ही देखते हैं। वे विभिन्न किस्म के लोगों के हितों को नहीं देखते। इस ग्रुप के विचारकों का मानना है मीडिया एक ही ग्रुप के हितों का प्रतिनिधित्व करता है,पूरे समाज के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करता। इस परिप्रेक्ष्य के मानने वालों पर ग्राम्शी के नजरिए और वर्चस्व की धारणा का व्यापक प्रभाव है। ग्राम्शी का मानना था सत्ताधारीवर्ग अपनी शक्ति को ताकत अथवा सहमति के जरिए आरोपित करता है। कभी कभी दोनों का इस्तेमाल करता है।
(लेखक- जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह)
   

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