शनिवार, 12 दिसंबर 2009

मुसलमान विरोधी ग्लोबल मीडिया -2-


आतंकवाद के बारे में विचार करते हुए प्रसिध्द जर्मन आतंकवाद विशेषज्ञ ने लिखा कि इससे 'फासिज्म का विस्तार होता है।' रुसी आतंकवाद विशेषज्ञ यूरी त्रिफोनोव ने लिखा  'इनका विश्वस्तर पर पतन हुआ है।रंगमंच खून से तर-बतर है और चरित्र मृत्यु है।' डेविड फ्रॉमकिन ने लिखा  ' हिंसा इसका प्रारम्भ है,इसका परिणाम है और इसका अंत है।'
          


    आमतौर पर भूमंडलीय जनमाध्यमों में इस्लाम धर्म और मुसलमान के बारे में 'स्टीरियोटाइप' प्रस्तुतियां मिलती हैं।इनमें इस्लाम एवं मुसलमान को आतंकवाद,पिछडेपन,बर्बरता और तत्ववाद का पर्याय बनाकर प्रस्तुत किया जाता है।इसके अलावा हिन्दू धर्म बनाम इस्लाम धर्म,ईसाइयत बनाम इस्लाम धर्म,पश्चिमी सभ्यता बनाम प्राच्य सभ्यताएं आदि रुपों में प्रस्तुतियां मिलती हैं।
        
    इस प्रसंग में सबसे बड़ी बात यह है कि देश विशेष को धर्म की पहचान से जोड़ना ठीक नहीं है।यह गलती वे देश भी करते हैं जो अपने को इस्लामिक राष्ट्र कहते हैं और भूमंडलीय माध्यम भी करते हैं।आमतौर पर यह मान लिया गया है कि जहाँ मुसलमान रहते हैं वे इस्लामिक राष्ट्र हैं।यदि इस केटेगरी के आधार पर वर्गीकरण करेंगे तो आधुनिक समाजविज्ञान की राष्ट्र-राज्य के विमर्श की समस्त वैज्ञानिक धारणाएं धराशायी हो जाएंगी। धर्म को यदि भारत,अमेरिका,ब्रिटेन आदि में राष्ट्र की पहचान से जोड़ना गलत माना जाता है तो यही बात उन देशों पर भी लागू होती है जिन्हें इस्लामिक राष्ट्र कहते हैं। असल में इस तरह की कोई भी केटेगरी राष्ट्र-राज्य के विमर्श को तत्ववाद के दायरे में ले जाती है।जाने-अनजाने हम सभी यह गलती करते हैं।
       
   इस्लामिक समाज बेहद जटिल समाज है।इसकी संरचना का देश विशेष के उत्पादन संबंधों और आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया जाना चाहिए।इसके बावजूद यह सच है कि मध्य-पूर्व के देशों में जनतंत्र का अभाव है,आधुनिक उत्पादन संबंधों का अभाव है,कल्याणकारी कार्यक्रमों का अभाव है,शिक्षा,सामाजिक सुरक्षा,रोजगार ,चिकित्सा आदि का अभाव है।

    लम्बे समय से इन देशों में राजशाही है या तानाशाही है।सेंसरशिप है।इसके बावजूद सरकारें हैं जिनका आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम है।समाज को ये सरकारें ही चला रही हैं। किन्तु इन समाजों में वैविध्य है। जीवन शैली और शासन के रुपों में अंतर है। मध्य-पूर्व के सभी देश एक जैसे नहीं हैं।इनका आंतरिक ताना-बाना और परम्पराएं अलग-अलग हैं। भूमंडलीय माध्यम कभी-भी इन समाजों में प्रवेश करके जानने की कोशिश नहीं करते। अत: इन देशों को एक कोटि में रखकर विश्लेषित नहीं किया जा सकता।यह सच नहीं है कि इन समाजों को मुल्ला या इसी तरह की कोई संस्था संचालित करती है।
                 
     सच्चाई यह है कि पश्चिमी समाजों के उद्भव और विकास के बारे में विस्तृत अध्ययन हुए हैं।जबकि इस्लामिक समाज के बारे में गंभीर अध्ययन अभी तक नहीं हुए हैं।सामान्यत: इस्लामिक समाज के बारे में एक अनुसंधार्त्ता की बजाय एक पत्रकार की अतिरंजित बयानबाजी देखने को मिलेगी। इस तरह के लेखन में आमतौर पर इस्लाम का आतंकवाद या तत्ववाद से संबंध जोड़ दिया जाता है।इस तरह की प्रस्तुतियों का लक्ष्य इस्लाम के खिलाफ ईसाइयत या हिन्दू तत्ववाद को उभारना और एकजुट करना होता है।साथ ही इस्लामिक समाज के बारे पश्चिम के विचारों को आरोपित करना होता है। इस तरह की प्रस्तुतियां जातीय और राष्ट्रीय पहचान के ऊपर धार्मिक पहचान को वरीयता प्रदान करती हैं। यही वजह है कि मुसलमान हमेशा धार्मिक होता है,राष्ट्रीय नहीं।राष्ट्रभक्त नहीं होता अपितु मुल्लाभक्त होता है।पोंगापंथी होता है आधुनिक नहीं होता।
              
     भूमंडलीय माध्यमों एवं भारत के व्यावसायिक पत्रकारों की राय में अभी भी मुसलमानों की धार्मिक पहचान खत्म नहीं हुई है,उनकी पहचान का राष्ट्रीयता की पहचान में रुपान्तरण नहीं हुआ है।सच यह है कि भारत जैसे आधुनिक राष्ट्र में किसी समूह के पास धार्मिक पहचान नहीं है।अपितु राष्ट्रीयता की पहचान में रुपान्तरण हो चुका है।जनमाध्यम इस रुपान्तरण को छिपाते हैं।

इसके विपरीत यह स्टीरियोटाइप निर्मित करते हैं कि मुसलमान कट्टर और पिछड़े होते हैं। वे कभी नहीं बदलते।वे धर्म के पक्के होते हैं।धर्म के अलावा उनके पास और कोई पहचान नहीं होती।इसके विपरीत पश्चिमी समाजों की धार्मिक पहचान को छिपाया जाता है।इन समाजों की राष्ट्रीय पहचान , देश की पहचान, सभ्यता की पहचान को उभारा जाता है।जबकि औपनिवेशिक राष्ट्रों की राष्ट्र या जातीय पहचान को को एकसिरे से अस्वीकार किया जाता है।इन देशों की मध्यकालीन अस्मिताओं को उभारा जाता है।कहने का तात्पर्य यह है कि मध्य-पूर्व के देशों या तीसरी दुनिया के देशों की जातीय या राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान को भूमंडलीय माध्यम विकृत रुप में पेश करते हैं।उनके लिए अस्मिता की पहचान की आधुनिक कोटियों का इस्तेमाल नहीं करते।सच्चाई यह है कि दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ धर्म न हो,धर्म के मानने वाले न हों,धार्मिक संस्थान न हों।किन्तु धार्मिक पहचान के साथ सिर्फ मुसलमानों को प्रस्तुत किया जाता है।सच यह है कि मुसलमान का धर्म के साथ वही रिश्ता है जो किसी ईसाई या हिन्दू का है।
            

3 टिप्‍पणियां:

  1. एक सटीक विश्लेषण पढ़ाने के लिए आभार ।

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  2. असल में आम मुसलमान [हर देश में]गरीब और अशिक्षित है और उसे अपनी रोज़ी-रोटी के लिए सडक पर रहना पडता है। जो सम्पन्न है वे उसके दर्द को नहीं समझ पाते हैं। अरब देशों में राजशाही है जो अम नागरिक की गरीबी से अलग...

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