शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

पियरे बोर्दिओ और नव्य-उदारतावाद - 1-

          पियरे बोर्दिओ की समाजशास्त्रीय और मीडिया दृष्टि पर परवर्ती मार्क्सवाद, समाजशास्त्र, चिन्हशास्त्र और मीडिया संरचना सैध्दान्तिकी का गहरा असर है। हिन्दी में अभी तक बोर्दिओ के बारे में चर्चा नहीं हो रही है,कभी-कभार एक दो उध्दरण मात्र दिखाई दे जाते हैं।बोर्दिओ फ्रांस की माक्र्सवादी-समाजशास्त्रीय परंपरा के प्रमुख स्तम्भ थे।


    पूंजीवाद और परवर्ती पूंजीवाद के दौर में किस तरह की सामाजिक,सांस्कृतिक और आर्थिक संरचनाएं निर्मित हो रही हैं और समाजशास्त्रीय सैध्दान्तिकी की नयी बदली हुई परिस्थितियों में किस तरह की संरचनाएं बन रही हैं और उन्हें किस तरह विश्लेषित करें। विश्लेषण के नए मॉडल क्या हो सकते हैं ? खासकर ऐसे दौर में जब सार्वभौमत्व की विदाई की घोषणा हो चुकी हो।बोर्द्रिओ का यहां नव्य-उदारतावाद यानी ग्लोबलाइजेशन के संदर्भ में विशेष रुप से मूल्यांकन किया गया है।
     
    बोर्दिओ के नजरिए का ग्लोबलाईजेशन के संदर्भ और परवर्ती पूंजीवाद के द्वारा पैदा की गई सांस्कृतिक और आर्थिक तबाही के संदर्भ में महत्व है। हमारे समाज में मध्यवर्ग के एक बड़े तबके में फैशन की तरह ग्लोबलाईजेशन का प्रभाव बढ़ा है,सरकार की नीतियों में ग्लोबलाइजेशन का अंधानुकरण चल रहा है,यहां तक कि अब तो वे लोग भी ग्लोबलाइजेशन के पक्ष में बोलने लगे हैं जो कल तक उसका विरोध करते थे,ऐसे विचारकों और राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं की तादाद तेजी से बढ़ रही है, वे यह कह रहे हैं कि पूंजीवाद का अब कोई विकल्प नहीं है,ग्लोबलाईजेशन के तर्कों को मानने के अलावा और कोई विकल्प नहीं हैं। 


    यही स्थिति ग्लोबल मीडिया चैनलों की है, उनके उपभोक्ताओं में किसी भी किस्म का प्रतिवाद का स्वर दिखाई नहीं देता बल्कि उल्टे राजनीतिक हल्कों में ज्यादा से ज्यादा चैनल और अखबार समूहों को अपने राजनीतिक रुझान के पक्ष में करने की होड़ चल निकली है। ग्लोबल मीडिया और ग्लोबलाइजेशन के प्रति इस तरह के रुझान इस बात के संकेत हैं कि भारत में ग्लोबलाइजेशन का वैचारिक असर रंग दिखाने लगा है।
        
    ग्लोबलाइजेशन की वैचारिक आंधी में हम भूल गए कि मीडिया विचारधारा मीडिया के बाहर अन्यत्र निर्मित होती है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि मीडिया का आम जनता पर सुनिश्चित प्रभाव होता है। हकीकत यह है कि मीडिया सामाजिक यथार्थ के दायरे में काम करता है। ग्लोबलाईजेशन और बहुराष्ट्रीय मीडिया की आंधी के विश्वव्यापी प्रतिरोधी स्वर को वैचारिक नेतृत्व देने वालों में बोर्द्रिओ अग्रणी कतार में रहे हैं। उनके विचारों में नए बदले हुए यथार्थ का सटीक मूल्यांकन मिलता है।उनके विचार भारतीय समाज के लिए भी प्रासंगिक हैं खासकर उन लोगों के लिए जो मौजूदा हालातों को बदलने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
       
  बोर्दिओ का जन्म एक अगस्त 1930 को हुआ और 23 जनवरी 2002 को मृत्य हुई। शिक्षा के दौरान बोर्द्रिओ एक असाधारण विद्यार्थी थे, लगन और साधना के धनी थे।सन् 1955 में उन्हें अल्जीरिया में सेना में काम करने के लिए भेजा गया,जिसके दौरान उन्होंने अल्जीयर्स विश्वविद्यालय में अपना कुछ समय बिताया, इस दौरान के अनुभवों और चिन्तन को उन्होंने 'थ्योरी ऑफ प्रैक्टिस' (1972) और ' दि लॉजिक ऑफ प्रैक्टिस' (1980)में लिपिबध्द किया। इन दोनों कृतियों पर लेवीस्त्रास का गहरा असर है। इन दोनों कृतियों में संरचनावाद के दायरे को तोड़कर आगे जाने की कोशिश दिखाई देती है। लेवीस्त्रास के अलावा समाजशास्त्रियों और माक्सवादी चिन्तन का भी उनके समूचे लेखन पर गहरा असर है।
   
     बोद्रिओ की गहरी दिलचस्पी सैध्दान्तिकी के निर्माण में रही है। उनके अंदर मूलत: एक दार्शनिक सक्रिय रहा है। किंतु दर्शन की क्षुधा को उन्होंने समाजशास्त्र की पध्दतियों के जरिए फील्ड अनुभवों के जरिए तृप्त किया। बोर्दिओ स्वभाव और व्यवहार में पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष थे। सामाजिक संरचनाओं का समाजशास्त्रीय नजरिए से अध्ययन करते समय उनकी दिलचस्पी का प्रधान क्षेत्र सामाजिक विषमता रहा है।
      
  बोर्दिओ ने बौध्दिक जगत में हीरो की भूमिका की तीखी आलोचना की है। बौध्दिक जगत में नायक खोजने अथवा नायक बनाने की बजाय वैज्ञानिक अनुसंधान के जरिए सामाजिक हस्तक्षेप को महत्वपूर्ण माना। बोर्द्रिओ ने सारी जिन्दगी बेघर,बेसहारा, शरणार्थी, नस्लवाद से पीड़ित लोगों की हिमायत की। इसके अलावा फ्रांस में शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया। मजदूर संगठनों,सत्ता से जुड़े राजनीतिज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक ही साझा मंच पर लाने का काम किया। मीडिया के क्षेत्र में उनकी चर्चित किताब है ,' ऑन टेलीविजन' (1996) इस किताब में उन्होंने रेखांकित किया है कि किस तरह टेलीविजन सारवान मुद्दों को हाशिए पर डाल रहा है और सांस्कृतिक फास्ट फूड तैयार कर रहा है। 


    बोर्दिओ की मूल चिन्ता यह थी कि किस तरह बीसवीं शताब्दी के संघर्षों की उपलब्धियों को बचाकर रखा जाय। ये पहलू उनकी निम्न तीन किताबों -'एक्टस ऑफ रेजिस्टेंस'(1998), 'फायरिंग बैक'(2002) और 'इंटरवेंशन' में देखे जा सकते हैं। ये तीनों किताबें एक नए किस्म के अंतर्राष्ट्रीयतावाद की हिमायत करती हैं। बोर्दिओ स्वभाव से शर्मीले और संकोची व्यक्ति थे।सरकारी सम्मान और पद की उन्हें आकांक्षा नहीं थी, बल्कि इसे उन्होंने ठुकराया।यहां तक कि वे कभी टीवी पर भी नहीं जाते थे। एक मर्तबा अमेरिकी टीवी पर व्यक्तिगत जीवन की अनेक बातों को अमेरिकी जनता के साथ शेयर करने के लिए वह टीवी पर आए तो आम लोगों को अचरज हुआ। यहां तक कि एक अर्से के बाद उन्होंने परिवार और लेखन के अलावा सामाजिक जीवन में शिरकत करनी बंद कर दी थी। बोर्द्रिओ ने अपने को दर्शन में दीक्षित किया,अल्जीरिया के युध्द में अपने विचारों को तपाया और कालान्तर में समाजविज्ञानी बने। बोर्दिओ उन चंद विचारकों में हैं जिनके यहां फ्रांस के 1968 के छात्र विद्रोह के पहले से ही फ्रांसीसी समाज का आलोचनात्मक विश्लेषण पेश किया जा रहा था। राजनीति में वे हमेशा वामपंथी रहे।
       
   बोर्दिओ का मानना है कि नव्य-उदारतावाद का मूल लक्ष्य है सामुदायिक संरचनाओं का क्षय और बाजार के तर्क की प्रतिष्ठा। इस तरह के आधार पर जो विमर्श तैयार किया जा रहा है वह वर्चस्ववादी है। विश्वबैंक ,इकोनामिक कारपोरेशन एंड डवलपमेंट और आईएमएफ जैसी संस्थाओं के द्वारा जो नीतियां थोपी जा रही हैं उनका लक्ष्य है श्रम मूल्य घटाना, सरकारी खर्च घटाना,  काम को और भी लोचदार बनाना। यही मौजूदा दौर का प्रधान विमर्श है। यथार्थ में आर्थिक व्यवस्था नव्य-उदारतावाद के यूटोपिया को लागू करने का विमर्श है। इसके कारण राजनीतिक समस्याएं पैदा हो रही हैं। 


    नव्य-उदारतावादी विमर्श, विमर्शों में से एक विमर्श नहीं है,बल्कि यह 'ताकतवर विमर्श' है। ताकतवर विमर्श इस अर्थ में, यह कठोर है,आक्रामक है,यह अपने साथ सारी दुनिया की ताकतें एकीकृत कर लेना चाहता है।यह आर्थिक निर्णय और चयन को अपने अनुकूल ढाल रहा है। वर्चस्ववादी आर्थिक संबंधों को निर्मित कर रहा है।नए किस्म के चिन्हशास्त्र को बना रहा है। 'थ्योरी ' के नाम पर ऐसी सैध्दान्तिकी बना रहा है जो सामूहिकता की भूमिका को नष्ट कर रही है। वित्तीय विनियमन पर इसका अर्थसंसार टिका है। इसके तहत राज्य का आधार सिकुड़ रहा है,बाजार का आधार व्यापक बन रहा है। सामूहिक हितों के सवालों को अप्रासंगिक बना रहा है। इसने व्यक्तिवादिता ,व्यक्तिगत तनख्वाह और सुविधाओं को केन्द्र में ला खड़ा किया है। तनख्वाह का व्यक्तिकरण मूलत: सामूहिक तनख्वाह की विदाई की सूचना है। नव्य -उदारतावाद मूलत: बाजार के तर्क से चलने वाला दर्शन है। इसमें बाजार ही महान है। इसके लिए परिवार,राष्ट्र,मजदूर संगठन,पार्टी, क्षेत्र आदि किसी भी चीज का महत्व नहीं है,यदि किसी चीज का  महत्व है तो वह है उपभोग का। उपभोग को बाजार के तर्क ने परम पद पर प्रतिष्ठित कर दिया है।


बोर्दिओ का मानना है भूमंडलीकरण ने जब सूचना तकनीकी के साथ नत्थी कर लिया तो उसने पूंजी की गति को अकल्पनीय रुप से बढ़ा दिया। इसके कारण छोटे निवेशकों के मुनाफों में तात्कालिक इजाफा हुआ,वे अपने मुनाफों के साथ स्थायी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफों की तुलना करने लगे हैं। बड़े कारपोरेशन बाजार के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रहे हैं।नव्य उदारीकरण के दौर में संरचनात्मक हिंसाचार में इजाफा हुआ है। असुरक्षा बढ़ी है। मुक्त व्यापार गुरूमंत्र बन गया है।मीडिया के द्वारा साधारण जनता की अभिरुचि के निर्माण की प्रक्रिया में व्यक्तिवादिता, प्रतिस्पर्धा और विशिष्टता इन तीन तत्वों का खासकर ख्याल रखा जाता है।बोर्दिओ का मानना है  अभिरुचि वर्गीकृत होती है और यह वर्गीकरण क्लासीफायर की व्यंजना है। इस स्थिति को हासिल करने की संभावना सिर्फ उन लोगों के पास है जिन्हें शिक्षा मिली है और जिनके पास पैसा है। इन लोगों की अभिरुचि उन लोगों से भिन्न होती है जो इनसे भिन्न हैं।
( लेखक- जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह) 

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