शनिवार, 15 अगस्त 2009

सुभाष चक्रवर्ती मौत के पहले और बाद में

सुभाष चक्रवर्ती की कल शोकसभा थी जि‍समें वामदलों के नेताओं के अलावा भी नेता और सैलि‍बरेटी मौजूद थे,नेताजी इण्‍डोर स्‍टेडि‍यम खचाखच भरा था। इस आयोजन में जो नहीं थे वह थे तृणमूल कांग्रेस के प्रति‍नि‍धि‍। तृणमूल कांग्रेस को कम से कम मौत और राजनीति‍ में अंतर करना चाहि‍ए। इस शोकसभा में बोलने वाले सभी वक्‍ताओं ने इस बात पर जोर दि‍या कि‍ हमें सुभाष के रास्‍ते पर चलना चाहि‍ए।
उल्‍लेखनीय है शोकसभाएं कभी भी जागरण पैदा नहीं करतीं। यदि‍ ऐसा होता तो महात्‍मा गांधी की हत्‍या के बाद तो सारे देश में गांधी के उसूलों पर चलने वालों की तादाद बेशुमार वृद्धि‍ हो जाती। शोकसभा में अमूमन जो कुछ भी बोला जाता है श्रद्धा में बोला जाता है और श्रद्धा में सक्रि‍य करने की क्षमता नहीं होती। श्रद्धा ठंडा रखती है,सक्रि‍य नहीं रखती। श्रद्धा में कहे गए वाक्‍यों पर आलोचना भी नहीं की जाती। वे आलोचना के परे होते हैं। इसीलि‍ए उनका कोई असर नहीं होता।
मौत के बाद कि‍सी भी व्‍यक्‍ति‍ के रास्‍ते पर चलना आसान नहीं होता और वि‍ज्ञान का नि‍यम है कि‍ दो लोग एक जैसे नहीं होते, एक जैसा अनुसरण नहीं कर सकते, वैसे ही जैसे हमारी दो आंखें कभी एक जैसी नहीं होतीं। यही वजह है कि‍ सुभाष चक्रवर्ती का चाहकर भी अनुकरण करना संभव नहीं है। प्रकृति‍ के यहां डुप्‍लीकेट नहीं बनते,यदि‍ ऐसा ही होता तो सुभाष चक्रवर्ती के रहते हुए वैसी प्रकृति‍ का दूसरा कॉमरेड माकपा तैसार कर लेती। मानवीय व्‍यवहार की प्रति‍कृति‍ नहीं बनती,वह वि‍लक्षण और वि‍शि‍ष्‍ट होती है। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ि‍त अलग होता है। एक ही मॉ के दो बेटे एक जैसे नहीं होते। सुभाष चक्रवर्ती की जि‍न बातों के लि‍ए प्रशंसा की जा रही है उन्‍हीं बातों के लि‍ए उनकी माकपा के नेता आलोचना करते रहे हैं,आज जो कुछ भी कहा जा रहा है उसका जीवि‍त सुभाष के समय में कही गयी बातों के साथ कोई मेल नहीं है। सुभाष चक्रवर्ती की मौत को राजनीति‍क तौर पर कोई वोट अथवा जनसमर्थन में तब्‍दील नहीं कि‍या जा सकता, इसका प्रधान कारण है सुभाष चक्रवर्ती की कैंसर से मौत हुई थी। वह राजनीति‍क अथवा गैर शारीरि‍क कारणों से नहीं मरे। राजनीति‍क कारणों से हुई मौत को एक क्षण के लि‍ए सहानुभूति‍ में तब्‍दील कि‍या जा सकता है जैसा इंदि‍रा गांधी और राजीव गांधी की हत्‍या के बाद हुआ था, कांग्रेस ने इन दोनों नेताओं की मौत को राजनीति‍क पूंजी में तब्‍दील कर लि‍या था, किंतु सुभाष चक्रवर्ती के मामले में यह संभव नहीं दि‍खता।
जो नेता स्‍वाभावि‍क मौत मरते हैं वे दुख छोड जाते हैं और अपनी सारी राजनीति‍क कमाई साथ ले जाते हैं। पंडि‍त जवाहरलाल नेहरू की मौत इसका आदर्श उदाहरण्‍ा है। पंडि‍त नेहरू की मौत के बाद कांग्रेस चाहकर भी संभल नहीं पायी और अंत में वि‍भाजन तक हो गया। सुभाष चक्रवर्ती ने जो कुछ कमाया था वह उनके साथ चला गया उसे राजनीति‍क पूंजी में कोई रूपान्‍तरि‍त नहीं कि‍या जा सकता। यदि‍ ऐसा ही होता तो माओत्‍से तुंग की मौत के बाद माओ के अनुयायि‍यों की चीन की कम्‍युनि‍स्‍ट पार्टी में दुर्गत तो कम से कम नहीं हुई होती,यही स्‍थि‍त इसके पहले लेनि‍न के अनुयायि‍यों की सोवि‍यत संघ में स्‍टालि‍न ने की थी।मौत पूर्णवि‍राम है उसके आगे कहानी नहीं जाती। काश हम यह सीख पाते । मौत सि‍र्फ पछतावा,त्रासदी और दुख छोड़ जाती है।

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