सोमवार, 13 जुलाई 2009

पुस्‍तक अंश 'नंदीग्राम मीडि‍या और भूमंडलीकरण'

भारत में मार्क्‍सवाद की धुरी है जनतंत्र और बहुलतावाद। मार्क्‍सवाद को अपनी परीक्षा जनता में ही नहीं देनी होती है बल्कि जनतंत्र की विभिन्ना संरचनाओं में भी बार-बार परीक्षा से गुजरना होता है। मार्क्‍सवाद को जितनी कठिन चुनौतियों में जनतंत्र में काम करना पड़ता है वैसा समाजवादी समाज में नहीं होता। वहां तो मार्क्‍सवाद को चुनौती देने वाली अन्य विचारधाराएं और संरचनाएं होती ही नहीं हैं। जनतंत्र में मार्क्‍सवाद के प्रयोग का जो तजुर्बा माकपा के पास है वह उसकी अकेली सबसे बड़ी पूंजी है। ऐसी पूंजी अन्यत्र दुर्लभ है। नंदीग्राम की गलती से माकपा की अपूरणीय क्षति हुई है। नंदीग्राम में जो कीमत माकपा को अदा करनी पड़ी है वह बहुत बड़ी है। व्यापक स्तर पर संगठन नष्ट हुआ है। कई हजार लोग बेघर होकर शरणार्थी बनकर रह गए हैं। सारे देश में माकपा की कतारों में वैचारिक अवसाद गया है। इस समूची प्रक्रिया में कहां पर चूक हुई है उसे रेखांकित करने और दुरूस्त करने की जरूरत है।

नंदीग्राम में सबसे बड़ी गलती यह हुई है कि माकपा के कार्यकर्त्‍ताओं की पिटाई हो रही थी, उन पर हमले हो रहे थे, उन्हें बेघर बनाया जा रहा था किंतु माकपा ने इस सबको लेकर मीडिया अभियान नहीं चलाया। प्रशासन को सक्रिय नहीं किया। पश्चिम बंगाल और देश की जनता को शिक्षित नहीं किया। ऐसा क्यों हुआ ? इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं ? उन्हें रेखांकित किया जाना चाहिए। दूसरी केन्द्रीय गलती है माकपा के नेतृत्व का मासमीडिया के प्रति तदर्थ रवैयया और प्रशासन के प्रति पार्टीजान रूख। आजादी के साठ साल के बाद भी माकपा ने अभी तक मीडिया और प्रशासन के प्रति पेशेवर नजरिया अख्तियार नहीं किया है।

मासमीडिया के इस्तेमाल की बजाय परंपरागत संप्रेषण और जनता से प्रत्यक्ष संपर्क करने ,दीवार रंगने,नारे लगाने, सभा करने,जनसभा करने आदि पर ज्यादा जोर रहा है। जबकि इसके विपरीत ममतापंथी लोगों ने मासमीडिया का खुलकर इस्तेमाल किया है। पेशेवर ढ़ंग से इस्तेमाल किया है। तीसरी बड़ी कमजोरी है माकपा के नेताओं का अपने कार्यकर्ताओं ,बुध्दिजीवियों और लेखकों को वैचारिक और सर्जनात्मक अभिव्यक्ति के लिए प्रेरित न कर पाना। माकपा से जुड़े बुध्दिजीवियों का नंदीग्राम के सवाल पर विभिन्ना तरीकों से हस्तक्षेप न कर पाना, अथवा माकपा के बुध्दिजीवियों का दुविधाग्रस्त होना इस बात का संकेत है कि ममतापंथी अपने मीडिया प्रचार में सफल रहे हैं। उन्होंने माकपा से जुड़े बुध्दिजीवियों को अचम्भित कर दिया। माकपा के नेतृत्व को अपने पार्टी बुध्दिजीवियों को वैचारिक तौर पर बांधे रखने की बजाय वैचारिक तौर पर खुला छोड़ना चाहिए। बुध्दिजीवियों पर विश्वास करना चाहिए। ममतापंथियों की मीडिया में प्रभावी भूमिका और माकपा से जुड़े बुध्दिजीवियों की अप्रभावी अथवा शून्य भूमिका चिन्ता की बात है।

नंदीग्राम के संदर्भ में राज्य प्रशासन की सबसे बड़ी विफलता है आन्दोलनकारियों की तैयारियों का सटीक अनुमान न लगा पाना। ममतापंथी किस हद तक तैयारी कर चुके थे, क्या करना चाहते थे, इन सबके बारे में राज्य प्रशासन एकसिरे से अनभिज्ञ था अथवा जानबूझकर ऐसा आभास दिया जा रहा है कि राज्य प्रशासन नहीं जानता था कि नंदीग्राम में क्या होने जा रहा है ? राज्य प्रशासन ने दूसरी बड़ी गलती यह की है कि नंदीग्राम में गोलीबारी की घटना में मारे गए लोगों के लिए किसी भी किस्म की आर्थिक सहायता राशि नहीं दी, गोलीबारी के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों के तबादले नहीं किए।आन्दोलन जनतांत्रिक है या अ-जनतांत्रिक यह निर्णय करना प्रशासन का काम नहीं है। राज्य प्रशासन संतुष्ट था कि उसने कोई गलती नहीं की बल्कि उकसावेभरी स्थिति के कारण गोली चलानी पड़ी। यह बात गलत है। गोली चलाना एकसिरे से असंवैधानिक था। राज्य के मुख्यमंत्री और वाममोर्चे के अध्यक्ष की साझा भूल यह है कि वे दोनों अभी तक नंदीग्राम के पीड़ितों से मिलने नहीं गए । यह ठीक है कि वहां परिस्थिति अशांत है। इसके बावजूद नंदीग्राम की जनता का भी मुख्यमंत्री और वाममोर्चा प्रतिनिधित्व करते हैं। मुख्यमंत्री की नंदीग्राम की जनता के प्रति बेरूखी जनतांत्रिक भाव को व्यक्त नहीं करती। इस संदर्भ में कम्युनिस्ट मुख्यमंत्रियों को पूंजीवादी पार्टियों के मुख्यमंत्रियों से काफी कुछ सीखना बाकी है। कल्पना कीजिए कल सारा बंगाल वाममोर्चे के जमीन अधिग्रहण के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दे, वाममोर्चे को चुनाव में बुरी तरह हरा दे तो क्या बुध्ददेव-विमानबसु पश्चिम बंगाल की जनता के बीच में नहीं जाएंगे। जनतंत्र में मुख्यमंत्री को उदार और सहिष्णु होना चाहिए। मुख्यमंत्री का अहं भाव उसकी विजय का नहीं पराजय का द्योतक है।

सवाल उठता है इतने बड़े पैमाने पर माकपा पर मीडिया के जरिए हमला बोला गया किंतु माकपा से जुड़े बुध्दिजीवी तकरीबन चुप क्यों रहे ? यह चुप्पी क्यों ? इसकी कायदे से पड़ताल की जानी चाहिए। माकपा और बुध्दिजीवियों के रिश्ते को और भी ज्यादा जनतांत्रिक बनाया जाना चाहिए। अभी यह संबंध पार्टी और कार्यकर्त्‍ता के रिश्ते में चल रहा है। इसे पार्टी और बुध्दिजीवियों के जनतांत्रिक संबंध में तब्दील किया जाना चाहिए। पार्टी और बुध्दिजीवियों के संबंध को लेकर हमें यूरोपीय और समाजवादी रास्ते पर जाने की बजाय भारतीय जनतंत्र के रास्ते पर चलना चाहिए। पार्टी और बुध्दिजीवी के अन्तस्संबंध का आधार जनतंत्र होना चाहिए। पार्टी का कार्यक्रम और वैध कार्रवाईयां जनतंत्र के आधार पर ही चल रही हैं। पार्टी को नंदीग्राम से सबक लेकर इस पहलू पर समग्रता में नए सिरे से विचार करना चाहिए।

पार्टी और बुध्दिजीवी का अन्तस्संबंध वह नहीं हो सकता जो नंदीग्राम के संदर्भ में सामने आया है, वह भी नहीं हो सकता जिसमें बुध्दिजीवी कभी बोलें ही नहीं और बोलें तो सिर्फ वही लोग बोलें जिन्हें पार्टी अनुमति दे अथवा जो पार्टी में वरीयताप्राप्त हैं। पार्टी और बुध्दिजीवी का अन्तस्संबंध, वरीयता,पार्टी के नेता की पसंद अथवा पार्टी के यांत्रिक अनुगामी का संबंध नहीं है। यह विचारधारात्मक और सर्जनात्मक संबंध है। पार्टी जिन सवालों को राजनीतिक तौर पर देखती और व्याख्या करती है लेखक और बुध्दिजीवी अलग भाषा, अलग मुहावरे और अलग किस्म के तर्कों में पेश करते हैं। लेखक की राजनीतिक प्रतिबध्दता को लेखकीय सीमा नहीं बनाया जाना चाहिए। जिस तरह पार्टी की राजनीति वहां तक जाती है जहां तक राजनीतिक क्षितिज फैला हुआ है। उसी तरह लेखक का क्षितिज भी वहां तक फॅैला है जहां तक वह सर्जनात्मक ढ़ंग से अभिव्यक्त कर सकता है।

पार्टी के बयान मर जाते हैं किंतु लेखक का सृजन नहीं मरता इसी अर्थ में पार्टी से ज्यादा लेखक के विचार टिकाऊ होते हैं। आज सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का रूस में भी अस्तित्व नहीं बचा है जबकि गोर्की, तालस्टाय, मायकोवस्की आदि बचे हुए हैं। पार्टी मर जाती है लेखक नहीं मरता। कार्यकर्ता मर जाते हैं ,नेता मर जाते हैं लेकिन लेखक नहीं मरता। बल्कि मरने के बाद लेखक और भी कीमती हो जाता है। ज्यादा पढ़ा जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी को लेखक और बुध्दिजीवी की सत्ता और स्वतंत्रता के स्वायत्त संसार को स्वीकृत करना चाहिए। वरना एक समय ऐसा आएगा कि कम्युनिस्ट पार्टी के पास लेखक नहीं होंगे। बेहतरीन बुध्दिजीवी नहीं होंगे।

नंदीग्राम के विस्थापित तीन हजार लोगों के बारे में हमने कभी अर्थशास्त्र नहीं फैलाया है, इन लोगों की कितनी आर्थिक क्षति हुई है और उन्हें कैम्पों में बैठे-बैठे कितनी क्षति प्रतिदिन उठानी पड़ रही है ? इसका कोई हिसाब किसी भी अर्थशास्त्री ने नहीं लगाया है। कायदे से बंगाल के जागरूक अर्थशास्त्रियों को यह काम जरूर करना चाहिए। इसके अलावा मानवीय क्षति की कीमत भी लगायी जानी चाहिए ? विस्थापितों को किस तरह के मानसिक कष्ट और यंत्रण्ाा से गुजरना पड़ रहा है, इसके अलावा नंदीग्राम में जो लोग मारे गए हैं , बलात्कार के शिकार हुए हैं, घाायल हुए हैं अथवा बेकार कर दिए गए हैं ? अथवा मानसिक यंत्रणा के शिकार बना दिए गए हैं ? उन सबका हिसाब लगाया जाना चाहिए।

नंदीग्राम के मीडिया प्रचार का सबसे बुरा परिणाम यह निकला है कि प्रचार जिस गति से बढ़ता गया आम लोगों में राजनीतिक बहस बढ़ती चली गयी। 14मार्च की घटना के बाद कुछ दिनों के बाद एक अवस्था ऐसी आ गयी कि टीवी पर लोग नंदीग्राम की खबरें देखने से भी भागने लगे। नंदीग्राम की राजनीति और उसके मीडिया कवरेज की सबसे बड़ी उपलब्धि है बाजार और सड़कों पर नंदीग्राम की राजनीति पर बहस गायब हो गई। नंदीग्राम के मीडिया कवरेज से आम जनता में राजनीतिक बहस घटी है किंतु चैनलों में बहस जारी थी। जनता को टीवी की बहसों ने दर्शक बना दिया, बहस का उपभोक्ता बना दिया। मीडिया में नंदीग्राम पर रिपोर्ट और बहस जिस गति से बढ़ रही थी, उससे भी तेज गति से आम जनता में बहस कम होती चली गयी। किंतु 5 नवम्बर 2007 से 11 नवम्बर2007 के बीच के कवरेज ने मामले को जनता में फिर से गर्मा दिया। किंतु एक बड़े हिस्से को टीवी ने तमाशबीन बना दिया। तमाशबीनों में माकपा के समर्थक ज्यादा थे। पश्चिम बंगाल की जनता को किसी भी मसले पर तमाशबीन बनाने का काम कारपोरेट मीडिया ने किया। इस 'अराजनीतिक' माहौल की सृष्टि का श्रेय न ममता को दिया जा सकता है और न बुध्ददेव या माकपा को इसका एकमात्र श्रेय ग्लोबलाईजेशन की प्रक्रिया को जाता है जिसके अन्तर्ग्रथित हिस्से के तौर पर सेज आया और मीडिया ने नंदीग्राम के प्रतिवाद को एजेण्डा बनाया। ग्लोबलाईजेशन का प्रतिवाद राजनीतिक माहौल कम अराजनीतिक माहौल ज्यादा बना रहा है।

मीडिया ने नंदीग्राम के संदर्भ में ममता और उसके सहयोगियों को हमेशा शांतिपूर्ण आन्दोलनकारी के रूप में पेश किया। चैनलों के अनुसार ममता एक्शन में कब गयी जब उसे माकपा ने मजबूर किया, माकपा ने जुल्म किया, आतंक फैलाया, हमले किए, जमीन छीनने का आदेश दिया इत्यादि बातों को पेश करके ममता के पक्ष में वैधता और शांति के तर्क दिए गए। जबकि माकपा के खिलाफ इसका विलोम तैयार किया गया। जाहिरा तौर पर ममता और उनके अनुयायियों के पास माकपा के लोगों को नंदीग्राम से बेदखल करने अथवा उन्हें न घुसने देने के अलावा और कोई तर्क नहीं बचता था, नंदीग्राम को नियंत्रण में रखना है तो यह जांच करनी जरूरी है कि पूरे इलाके में माकपा का कोई व्यक्ति या कार्यकत्तर्ाा तो नहीं है ! साथ ही यह भी प्रचार किया गया कि पुलिसबल माकपा का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी नंदीग्राम में घुसने नहीं दिया जाए। जब भी गोली अथवा बम चलें तो बार-बार यही कहा गया कि दोनों ओर हथियार और बारूद जमा है।

पहले चरण में माकपा को हिंसक बनाया गया, शैतान बनाकर पेश किया गया, हत्यारा और उसके कैडर को गुंडावाहिनी का नाम दिया गया। दूसरे चरण में माकपा पर किए गए हमलों की वैधता निर्धारित की गई। चूंकि माकपा के लोग हिंसक हमले कर रहे थे अत: उन्हें जहां भी देखो हमला करो। पार्टी दफ्तरों को जला दो। ममतापंथी यह हिंसाचार क्यों कर रहे थे, बतर्ज उनके वे आत्मरक्षा में हमले कर रहे थे इस तरह ममतापंथियों की हथियारबंद कार्रवाईयों को मीडिया ने वैध बनाया।

पहले चरण में ममता को किसानों की हमदर्द और माकपा को किसान विरोधी चित्रित किया गया। दूसरे चरण में ममता को नागरिक अधिकारों की महारक्षक और नंदीग्राम को किसान राजनीति का मील का पत्थर बनाया गया। यानी पहले नंदीग्राम को विशिष्ट बनाया, उसके संघर्ष को विशिष्ट बनाया और बाद में नंदीग्राम को नागरिक संघर्ष का प्रतीक बनाया गया। ऐसा करके नंदीग्राम पर राष्ट्रीय वैधता हासिल करने की मीडिया के जरिए कोशिश की गयी। नंदीग्राम की मीडिया प्रस्तुतियों की अपनी कमजोरियां और अन्तर्विरोध भी थे। जिनकी तरफ शायद ममतापंथी और नंदीग्रामपंथी बुध्दिजीवी-राजनीतिज्ञ ध्यान नहीं दे पाए। ममतापंथियों की समूची रणनीति मीडिया केन्द्रित रही है। वे अपने एक्शन की वैधता को मीडिया के जरिए वैध बनाते रहे हैं। ऐसा करते हुए वे यह भूल ही गए कि मीडिया में वैधता का अर्थ राजनीति और सामाजिक जीवन में वैधता नहीं है। यदि ऐसा होता तो वामपंथ पश्चिम बंगाल से कभी का उखड़ गया होता। मीडिया की वैधता ही अगर राजनीति को वैध बनाती है तो अमरीका के द्वारा इराक पर किए गए हमले को अमरीका की जनता वैध मान लेती ? हम सभी जानते हैं कि राष्ट्रपति बुश के इराक एक्शन के पक्ष में मीडिया गुलामों की तरह खड़ा रहा है इसके बावजूद बुश की जनप्रियता के स्तर में गिरावट को रोका नहीं जा सका है। बुश आज अमरीका में सबसे अलोकप्रिय व्यक्ति है। राजनीतिक यथार्थ का निर्धारण मीडिया प्रचार के आधार पर नहीं बल्कि सामाजिक यथार्थ,जनता से करीबी संबंध,सामाजिक संतुलन,सांगठनिक संरचनाएं और जमीनी राजनीति के आधार पर किया जाना चाहिए। इस मामले में नंदीग्राम आदि मसलों पर भयानक गलतियों के बावजूद माकपा का अभी मजबूत आधार है और यदि माकपा अपनी गलती मानकर नंदीग्राम पर प्रचार में उतरती है तो वह और भी ताकतवर बन जाएगी।

पश्चिम बंगाल के सामाजिक यथार्थ और जमीनी राजनीति में अभी भी वाम को मीडिया हाशिए पर नहीं डाल पाया है। मीडिया का काम संप्रेषण करना। मीडिया के द्वारा यथार्थ राजनीति को न तो बिगाड़ा जा सकता है और न नष्ट ही किया जा सकता है। मीडिया के जरिए राजनीतिक और सामाजिक संतुलन को भी नहीं बदला जा सकता। मूल बात यह है कि मीडिया के द्वारा आप यथार्थ रच नहीं सकते। मीडिया स्वयं में निर्माता नहीं है। मीडिया के पैर नहीं होते । वह स्वयं में कुछ भी रच नहीं सकता। संचार स्वयं में यथार्थ नहीं बनाता। यथार्थ के निर्माण की प्रक्रिया के नियामक तत्व मीडिया से स्वतंत्र होते हैं। उनका तानाबाना अलग किस्म का होता है। उसकी प्रक्रिया अलग होती है।

आज के मीडिया की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह जल्दी में है। डेडलाइन के दबाव में है, नाटकीयता की तलाश में है, खबर की तलाश में है। जब खबरें नहीं मिलतीं तो खबरें बनाता है। जब सनसनी नहीं होती तो सनसनीखेज और उत्तोजक बातें टॉक शो के जरिए पेश करता है। मीडिया को निर्माता और नियंत्रक नहीं समझना चाहिए। भारत जैसे परंपरागत समाज में व्यापक स्तर पर परंपरागत कम्युनिकेशन के जरिए लोग संपर्क,संवाद और विवाद करते हैं। परंपरागत मंचों पर ही समाधान तलाशते हैं। वास्तव जीवन के समाधान मासमीडिया में नहीं खोजे जाते। मासमीडिया का प्रधान कार्य है प्रचार करना, सूचना देना, विज्ञापन के लिए बाजार तैयार करना, बाजार के लिए माहौल बनाना। मीडिया यथार्थ नहीं रचता बल्कि संस्कार या एटीट्यूटस बनाता है।

नंदीग्राम का मीडिया के लिए रेटिंग से ज्यादा महत्व नहीं था। मीडिया के लिए विचार का कोई दाम नहीं है। बाजार का दाम है। दर्शक या ऑडिएंस का दाम है। जिसके पास जितने ज्यादा दर्शक या पाठक उसके पास उतने ही ज्यादा विज्ञापन। ज्यादा से ज्यादा पाठक जुगाड़ने के लिए खबरें चाहिए। मीडिया अपने जरिए बाजार को विचार नहीं दर्शक या उपभोक्ता मुहैयया कराता है। उपभोक्ता की विचारधारा का निर्माण करता है। उसके संस्कार बनाता है। राजनीति और राजनीतिक झगड़े उसके लिए गौण हैं। एक नेता के नाते ,एक बुध्दिजीवी के नाते यह मुगालता हो सकता है कि वह मीडिया में जो बोल रहा है उसका प्रभाव पड़ रहा है। किंतु मीडिया के विचारों का प्रभाव पड़ता तो सोवियत संघ में हठात् साम्यवाद गायब नहीं हो जाता। खासकर टीवी के बारे में यह ध्यान रहे कि टीवी घर-घर की गई दुकानदारी है। टीवी विचार का नहीं विज्ञापन का माध्यम है।

मीडिया के प्रभाव के बारे में एक मुगालता यह भी है कि जो कुछ कहा जा रहा है अथवा दिखाया जा रहा है उस सबका प्रभाव होता है। मीडिया में जो चीजें पेश की जाती हैं उन सबका असर स्वत: ही नहीं होता। बल्कि संदेश को ले जाने वाली संरचनाएं होनी चाहिए। संचार को जनता तक ले जाने वाली संरचनाओं के अभाव में मीडिया प्रचार का कोई असर नहीं होता। मीडिया तब ही पर्सुएट कर पाता है जब नीचे संदेश को लागू करने वाली मशीनरी हो। लागू करने वाली मशीनरी माल के रूप में दुकानों के रूप में बाजार में चंद कदमों की दूरी पर होती है, इसके बावजूद सभी ब्रॉण्ड नहीं बिकते। जब माल का बाजार में हाल खराब है तो विचार की दशा कितनी खराब होगी उसकी हम सहज ही कल्पना कर सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि नंदीग्राम के मीडिया प्रचार का माकपा के खिलाफ जनमत पर असर नहीं होगा, निश्चित रूप से असर होगा किंतु कितना असर होगा यह दावे के साथ कहना मुश्किल है।

मीडिया का प्रचार अगर राजनीति की दिशा और दशा तय करता तो क्यूबा का अस्तित्व ही खत्म हो जाता। वेनेजुएला के नए शासक चावेज की सत्ता धराशायी हो जाती। जिन दलों के जनता के साथ गहरे संबंध हैं। जिन विचारधाराओं की जनता में जड़ें हैं, जिन दलों की गरीब लोगों में साख है, राजनीतिक स्वीकृति है, उन्हें मीडिया के हंगामों के जरिए अपदस्थ करना बेहद मुश्किल होता है। हमारे देश में लालू यादव मीडिया के लालू विरोधी प्रचार अभियान का आदर्श उदाहरण है। चारा घोटाला कांड और बिहार के पिछडेपन को लेकर जितनी सामग्री लालू यादव के खिलाफ प्रत्येक मीडिया में आयी है उतनी किसी भी व्यक्ति को लेकर नहीं आयी है आज वही व्यक्ति मीडिया में सबसे बड़ा संप्रेषक बन गया है। लालू यादव चुनाव हार गए, बिहार का शासन उनके हाथ से निकल गया किंतु उनके जनसमर्थन में कोई खास कमी नहीं आयी, यही स्थिति हाल ही में सम्पन्ना हुए यूपी विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी की भी देखी गयी। यूपी और बिहार अव्यवस्था, तबाही, नाकारा और भ्रष्ट प्रशासन में आदर्श माने जाते हैं। इसके बावजूद यदि लालू-मुलायम के जनसमर्थन को मीडिया कम नहीं कर पाया है तो पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार के जनसमर्थन को कम कर देगा, इसमें संदेह है। इसका प्रधान कारण है वामपंथी सरकार की सामंजस्य नीति। 'खाओ और खाने दो' की नीति। वामपंथी प्रशासन समाज के प्रत्येक तबके के साथ सामंजस्य बनाकर चलता रहा है। जो जैसा है, उसे वैसा ही रहने दो। यही मूल कार्यनीति रही है। मूलत: यथास्थिति बनाए रखना ही वामपंथी प्रशासन की उपलब्धि है और कमजोरी भी है।

नंदीग्राम के आंदोलन का मीडिया ने सौंदर्यीकरण किया। नंदीग्राम पंथियों के उग्रवादी समूह को वैध विचार का मुखौटा दिया। कलाकारों-संस्कृतिकर्मियों के एक हिस्से को राजनीतिक अभिव्यक्ति का मौका दिया। नंदीग्राम के पूरे प्रकरण पर मीडिया की भूमिका यह थी कि वह प्रिफॉर्मेंस को सामने ला रहा था। लोग टीवी में स्पेस बनाने के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रिफार्म कर रहे थे। राजनीतिक एक्शन भी प्रिफार्मेंस से संचालित थे। इसी अर्थ में नंदीग्राम का सौंदर्य निर्माता राजनीतिज्ञ नहीं मीडिया है। मीडिया के सौंदर्य में जो आनंद है, मजा है। वह एक्शन में कहां। मीडिया में एक्शन वास्तव से भी सुंदर दिखता है। यही वजह है कि हम एक्शन से नहीं मीडिया के प्रभाव में होते हैं। मीडिया बंद तो प्रभाव भी बंद। राजनीति के सौंदर्य को यदि मीडिया निर्मित किया ,उसे कारपोरेट मीडिया सौंदर्य बनाया।

मीडिया की प्रस्तुतियां बुध्दिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों को लेखकीय भूमिका से अलगाती है। यह काम मीडिया अहर्निश प्रस्तुतियों के जरिए करता है। अहर्निश प्रस्तुति ही हैं जो लेखक, राजनीतिज्ञ,बुध्दिजीवी को अंतत: जोकर,विदूषक, चटखारे लेकर बोलने वाला,बकवादी बनाती है। राजनीतिक एक्शन का मीडिया के द्वारा सौंदर्य निर्माण अंतत: सब कुछ को रूढ़ि बना देता है, सतही बना देता है, सुपरफ्लुअस बना देता है। मीडिया के सौंदर्य में जुगनू जैसी रोशनी और चमक होती है। इसे प्रकाश समझने की गलती नहीं करनी चाहिए। ऐसी अवस्था में जब किसी राजनीतिक एक्शन का मीडिया महिमा मंडन करता है तो उसे सुपरफ्लुएस बना देता है।

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