शनिवार, 11 जुलाई 2009

देरि‍दा : संकट का मसीहा

देरि‍दा के विचारों ने सारी दुनिया में धूम मचाई है।किंतु भारत में देरि‍दा के विचारों के प्रभाव की वह गर्मी दिखाई नहीं देती जो अमेरिका,अफ्रीका,यूरोप में है।यहां तक कि लैटिन अमेरिका में जनप्रिय हैं। देरि‍दा भारत आए और दिल्ली,कोलकाता में धमाकेदार व्याख्यान भी दे गए। किंतु साहित्यालोचना, इतिहास, दर्शन,राजनीति विज्ञान आदि के क्षेत्रों में उनका वैसा स्वागत नहीं हुआ जैसा आम तौर पर होता है।इस उपेक्षाभाव के कारणों की खोज की जानी चाहिए। हिन्दी में साहित्यालोचना की इन दिनों जो अवस्था है उसमें नए की तरफ बुध्दिजीवियों का ध्यान ही नहीं जाता।नए के प्रति संशय का भाव है अथवा नए को न सीखने की जिद है।हिन्दी समीक्षा लंबे समय से पुनरावृत्ति की शिकार है। पुराने को ही बार-बार चमकाने या दोहराने की प्रवृत्ति जम गई है। वह अतीत में कैद हैं। शीतयुध्दीय राजनीति और प्रगतिशील साहित्यालोचना की रूढ़ियों की शिकार है। रूढ़ियों का अनुगमन करने के कारण इसमें नए के प्रति कोई आकर्षण नहीं है।स्थिति इतनी भयावह है कि मार्क्‍सवाद के बारे में,मार्क्‍सवादी पध्दति के प्रयोग के बारे में भी रूढ़ियां हावी हैं।
भारत के सामाजिक माहौल की एक विशेषता है कि वह हर चीज को हजम कर जाती है।वह पुराने को खत्म किए वगैर उससे मुक्त हुए वगैर नए को भी हजम कर जाती है।हर चीज को हजम कर जाने का विचार मूलत: जनतंत्र विरोधी है। सर्वसंग्रहवादी है।प्रतिगामी है। इसमें अप्रासंगिक पुराने विचारों के प्रति जबर्दस्त आग्रह है।वह प्रत्येक नए विचार को पुराने में समाहित करने के लिहाज से देखता है। यह पुराने का खजांची है।हमारे समाज में 'ओल्ड इज गोल्ड' की धारणा की गहरी जड़ें हैं। हिन्दी मे अतीतपंथी हैं या शीतयुध्दीय राजनीति की कोटियों में सोचने वाले हैं।ये दोनों ही रास्ते साहित्यालोचना की गंभीर बाधा हैं।
साहित्यालोचना को प्रासंगिक बनाने के लिए जरूरी है कि उसे सभी किस्म की आलोचना रूढ़ियों की कैद से मुक्त किया जाए।नियमों और सिध्दान्तों के बने-बनाए सांचों में रखकर जब भी आलोचना लिखी जाएगी उसमें जीवन की धड़कन सुनाई नहीं देगी।आज वास्तविकता यह है कि साहित्यालोचना से गंभीर वाद-विवाद गायब हैं।आलोचना की जगह व्यक्तिगत और आत्मगत तत्व आ गए हैं।भाषा के भदेस प्रयोगों के नाम पर भाषा में गंभीर विमर्श के माहौल को बिगाड़ा जा रहा है।साहित्यालोचना को सस्तेपन,गुटबाजी और व्यक्तिगत प्रमोशन स्कीम के हवाले कर दिया गया है।आलोचना पूरी तरह गायब हो गई है। आज आलोचक हैं किंतु आलोचना गायब है।आलोचना के नाम पर चाटुकारिता और रीतिवाद आ गया है। विमर्श,विवाद,संवाद,संपर्क की जगह व्यक्तिगत निंदा, जोड़तोड़, चालाकियों,नकल ,और झूठ ने ले ली है।इसी अर्थ में यह साहित्यालोचना के ह्रास का संकेत है। साहित्यालोचना के मौजूदा माहौल को बदलने के लिहाज से फ्रासीसी दार्शनिक ज्यांक देरीदा प्रस्थान बिन्दु हो सकता है।
ज्यांक देरि‍दा किसी भी किस्म की संकीर्णता और नियमों की कैद से मुक्त है।यह स्वभाव और सिध्दान्त में जनतांत्रिक है।इसकी आलोचना सैध्दान्तिकी का मिजाज हमारे समाज की वैविध्यपूर्ण जनतांत्रिक परिस्थितियों के अनुकूल है।देरीदा सबका है और किसी का नहीं है। भारत जैसे विषम समाज में देरीदा के विचारों की सबसे ज्यादा प्रासंगिकता है। वह वंचितों और दुखियों का पक्षधर है।इसके चिन्तन के केन्द्र में एक नहीं अनेक हैं।अभी तक आलोचना निज को केन्द्र में रखकर लिखी जाती रही है।देरीदा ने आलोचना और दर्शन को निज के दायरे से बाहर निकालकर अन्य के दायरे में लाकर खड़ा किया है।वह अन्य, अन्यत्व,वंचित,काले,अल्पसंख्यक,स्त्री आदि के सवालों को केन्द्र में रखकर सोचता है।उसकी चिंता के केन्द्र में मानवाधिकार हैं।वह मानवाधिकारों की चेतना का विकास करते हुए सामाजिक परिवर्तन देखना चाहता है।उसकी चिन्ता क्रान्ति नहीं है।रेडीकल जनतंत्र है। सर्वसत्तावादी शासन नहीं जनतांत्रिक शासन है।देरीदा मानवीय इच्छाशक्ति का प्रवक्ता है।मानवीय जीवन को उसने सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा है।वह सोचने,समझने और देखने की सभी नई और पुरानी बनी-बनायी कोटियों को अपदस्थ करता है।आप जो हैं।वह नहीं रहते।वह बदलने के लिए मजबूर करता है।उसके समूचे चिन्तन के केन्द्र में एक ओर जनतंत्र है दूसरी ओर मानवीय विकास है।जनतंत्र और विकास के नजरिए से वह हाशिए के लोगों या वंचितों के बारे में सोचता है।
भारत में देरि‍दा के जनप्रिय न हो पाने का प्रधान कारण है जातिप्रथा और उच्चवर्ण के दृष्टिकोण का वर्चस्व।इसके अलावा वेदान्त और कठमुल्ला माक्र्सवादी नजरिए का बौध्दिकों पर गहरा असर।दूसरा प्रधान कारण है आलोचना का दर्शन से अलगाव। मजेदार बात यह है कि दर्शन में जिस गति से भारत में विगत पचास वर्षों में नई समझ पैदा हुई है उसका साहित्यालोचना के साथ तकरीबन संवाद नहीं हुआ है।उल्लेखनीय है कि दर्शन और सैध्दान्तिकी के साथ संवाद के बिना आलोचना मर जाती है।साहित्यालोचना की प्राणवायु साहित्य के साथ-साथ दर्शन से आती है।वास्तव जीवन के साथ-साथ सैध्दान्तिक विमर्श से आती है। हिन्दी की आलोचना के पुरोधा आलोचक नामवर सिंह को थियरी से गहरी चिढ़ है। जबकि थियरी के बिना विकास संभव नहीं है।हिन्दी के चर्चित साहित्यकार,सम्पादकों को चटपटी बातें कहने, सनसनीखेज बातें करने, उठा-पटक और पुरस्कारों में जितनी रूचि है उतनी गंभीर विमर्श में नहीं है।यही वजह है कि हिन्दी में गंभीर लेखन की न तो कोई पत्रिका है और न कोई शोध संस्थान है।हिन्दी के अधिकांश आलोचक ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं जिसमें गंभीर बहस नहीं हो सकती।साहित्यिक पत्रिकाएं कामचलाऊ नजरिए से प्रकाशित हो रही हैं।इन पत्रिकाओं को देखकर लगता ही नहीं है कि हम 21वी शताब्दी में हैं। कमोबेश रूप में इन पत्रिकाओं में उन्नीसवीं शताब्दी के वर्गीकरण और अवधारणाओं के आधार पर सामग्री प्रकाशित हो रही है।अनुसंधान और गंभीर विमर्श से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं को एलर्जी है।इसका प्रधान कारण है विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी के प्रति अगंभीर और अनुसंधान विरोधी रवैयये का होना।स्थिति की भयावहता का अनुमान सिर्फ इसी तथ्य से लगा सकते हैं कि हिन्दी के अधिकांश विश्वविद्यालय और कॉलेज शिक्षक शोध प्रविधि के सामान्य नियमों से अनभिज्ञ हैं।इस अज्ञानता को देखने के लिए बाजार में उपलब्घ शोधपरक कृतियों को देखा जा सकता है।इन सब बातों को रखने का मकसद किसी का अपमान करना नहीं है। किसी को छोटा या हेय ठहराना नहीं है।अपितु इस तथ्य की ओर ध्यान खींचना है कि हिन्दी का साहित्य जगत गंभीर संकट में फंसा है।इस संकट से निकलने का एक ही रास्ता है कि सबसे पहले साहित्यालोचना अपने को गंभीर विचार- विमर्श में शामिल करे।देरीदा इस संदर्भ में हमारे लिए पथ-प्रदर्शक हो सकते हैं।देरीदा से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। हमारी परंपरा में बहुत कुछ ऐसा है जिससे देरीदा को समृध्द कर सकते हैं।
मजेदार बात यह है कि हम अपनी परंपरा का मूल्यांकन करते हुए आगे की ओर नहीं हमेशा पीछे की ओर जाते हैं।हमें इस सवाल पर विचार करना होगा कि परंपरा का मूल्यांकन करते-करते हमारी दृष्टि परंपरावादी क्यों हो जाती है।हम परंपरा को अतीत के खूंटे से मुक्त क्यों नहीं कर पाते।जिस आलोचक ने भी परंपरा का मूल्यांकन किया अपने को अतीत का हिस्सा बना लिया।जबकि देरीदा ने विरासत का मूल्यांकन करते हुए विरासत को, परंपरा को अतीतबोध से मुक्त किया।आधुनिक विमर्श,आधुनिक सामाजिक,सांस्थानिक, संरचनात्मक प्रक्रियाओं से जोड़ा।
हमारे समर्थ आलोचक परंपराओं की खोज के क्रम में प्रवेश आलोचनात्मक विवेक के साथ करते हैं किंतु लौटते हैं परंपरा के आराधक बनकर,अनालोचनात्मक दृष्टिकोण के साथ।जिसने भी परंपरा का मूल्यांकन किया वह परंपरा का अंग बन गया।मेरे हिसाब से किसी आलोचक के लिए यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि जीते जी परंपरा या विरासत में चला जाए।हमारे यहां विरासत में जाने की जितनी बेचैनी है उतनी भविष्य में जाने की नहीं है। वर्तमान में जीने में नहीं है। परंपरा का जितना मूल्यांकन हुआ है उतना वर्तमान और भविष्य का नहीं हुआ।विचारों की दुनिया में पुराने को यदि पुराने के आधार पर परखा जाएगा तो पुराना अपने पुरानेपन से मुक्त नहीं होगा।यदि पुराने को वर्तमान के आधार पर,नए के आधार पर परखेंगे तो नए का जन्म होगा।परंपरा के मूल्यांकन में हमने अभी तक अपनी सारी ऊर्जा जो उपलब्ध है, जिसे हम कमोबेश जानते हैं उसी की खोज और पैकेजिग बदलने में लगाई है। परंपरा या विरासत के मूल्यांकन का अर्थ तब खुलता है जब हम अनुपलब्ध को खोजते हैं। हम जब अनुपलब्ध को खोजते हैं तब ही नए का जन्म होता है।किंतु परंपरा की खोज के नाम पर अब तक का सारा कारोबार मूल की प्रतिलिपि तैयार करने का रहा है।खासकर हमारी आलोचना ने परंपरा के नाम पर जो कुछ दिया है वह पहले से उपलब्घ था।हमारे ये आलोचक मूल को उसकी प्रतिलिपि से अलग नहीं कर पाए।परंपरा के जिन रूपों या व्यक्तित्वों या जिस साहित्य परंपरा की खोज की गई उसमें हमें यह तथ्य देखना होगा कि उसमें मूल और प्रतिलिपि में क्या फर्क है ?इसके लिए विश्लेषण का कहां तक इस्तेमाल किया गया है ?जो उपलब्ध था क्या उसे भिन्न भाषा में पेश कर दिया गया है।अथवा यहां-वहां से उध्दरण जुटाकर सजा दिया गया है।
परंपरा का मूल्यांकन सिर्फ भाषा का खेल नहीं है।हमें देरीदा की यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि मौलिक का जन्म कभी भाषा के आधार पर नहीं होता। भाषा को लुप्त अनुभवों का प्रतिनिधित्व करने का हक नहीं दे सकते।भाषा के जरिए लुप्त की खोज नहीं की जा सकती।देरि‍दा ने लिखा है कि मौलिक का जन्म,शुध्द का उदय कभी भी भाषा के आधार पर नहीं हो सकता।लेखन को वाक् के मातहत नहीं रख सकते।यदि ऐसा करते हैं तो यह हमारा ऐतिहासिक पूर्वाग्रह होगा।प्रत्येक 'साइन' में एक 'सिगनीफायर' होता है जो अन्य को व्यंजित करता रहता है।अर्थभेद पैदा करता है।इसी तरह 'सप्लीमेंट' या पूरक के विचार को लें इसमें बड़े रोचक सवाल निहित हैं। हम मौलिक के बारे में सोच सकते हैं।किंतु मौलिकता जैसी कोई चीज नहीं होती।बल्कि अपूर्ण मौलिक होता है।जिसके कारण हम 'पूरक' का सृजन करते हैं।इसे हम 'अतिरिक्त' भी कह सकते हैं।पूर्ण में इसे जोड़ सकते हैं।इससे संपूर्ण की कमजोरी सामने आ जाएगी।इसी को देरि‍दा ने 'लॉजिक ऑफ दि सप्लीमेंट' कहा है।
देरि‍दा ने कहा कि वर्तमान सिर्फ वर्तमान है।जब तक वह अपनी भिन्न पहचान बनाए रखता है,हम जब अनुपस्थित की खोज करते हैं तो अनुपस्थित ने जो संकेत छोड़े हैं उन्हीं पर लौटते हैं।जब हम मौलिक वर्तमान की बात करते हैं तो उसका उदय भी खोजें।वह वर्तमान में ही होता है।अतीत में नहीं।दर्शन हमेशा जो 'मौजूद' है उसकी बात करता है, क्योंकि जीवंत अनुभवों की वर्तमान में ही परीक्षा संभव है।
देरि‍दा की नजर में प्रत्येक पाठ ,दुहरा पाठ होता है।इसे रीडिंग या पठन के स्तर पर देख सकते हैं।इसमें अन्तर्विरोध भी होते हैं।पाठ की दूसरी रीडिंग खुली होती है।उसकी कोई सिंथीसिस संभव नहीं है।देरि‍दा ने 'ग्राम्मटोलॉजी' को लेखन का विज्ञान कहा।वह लेखन के परंपरागत मॉडल के परे जाता है।देरि‍दा लेखन के उदय और सैध्दान्तिकी पर रोशनी डालते हैं।लेखन और मेटाफिजिक्स के अन्तस्संबंधों पर रोशनी डालते हैं।'मेटाफिजिक्स ऑफ प्रिजेंस' की धारणा के तहत बताते हैं कि वक्ता की शारीरिक मौजूदगी उसकी वक्तृता की प्रामाणिकता है।वाचन से ही हम लेखन की ओर बढ़े हैं।इसी को देरीदा ने 'दि साइन ऑफ दि साइन' कहा है।चूंकि रीडिंग के समय लेखक मौजूद नहीं रहता जिससे कि वह पाठ को वैधता प्रदान कर सके।यही वजह है कि वाचिक भाषा को सीधे विचारों से संबंधित मान लिया गया है।इसी अर्थ में लेखन और वाक् एक-दूसरे के पूरक हैं।देरीदा का मानना था कि लेखन न केवल अर्थ को प्रदूषित करता है,वरंच वक्तृत्व का स्थान भी ले लेता है,क्योंकि वक्तव्य सदैव पूर्व-लिखित है।देरि‍दा के शब्दों में ' स्पीच ऑलवेज ऑलरेडी रिटेन'।ये बातें गोपीचंद नारंग ने अपनी पुस्तक 'संरचनावाद,उत्तर- संरचनावाद एवंप्राच्य काव्यशास्त्र' में लिखी हैं।(पृ.164)किंतु नारंग साहब यह भूल गए कि देरीदा ने ये बातें पुस्तक के संदर्भ में कही थीं।नारंग साहब की मुश्किल यह है कि वे देरीदा के विचारों से गुजरते हैं।किंतु विचारों के सन्दर्भ को छिपा जाते हैं।आलोचना का यह रूपवादी तरीका है।देरीदा ने असल में 'पुस्तक' के संदर्भ में इस समस्या को खोला है।सुधीश पचौरी ने देरीदा के इस पक्ष की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ''पश्चिमी परंपरा में 'पुस्तक' के मायने 'स्थिर' और 'बंद' ज्ञान है।माना जाता है कि ज्ञान पुस्तक में 'कैद' हो जाता है।ज्ञान लेखक की कैद में होता है।उसी में लेखक रहता है।यही उसकी उपस्थिति है,-'प्रेजेंस' है जो अभीष्ट अर्थ को संभव करती है।दूसरे शब्दों में लेखक न होगा तो अर्थ न होगा,पुस्तक न होगी।देरीदा बताते हैं कि अच्छा लेखन हमेशा समग्रता में समझने योग्य होता है जो किसी किताब में पूरी तरह सुरक्षित होता है।पुस्तक का विचार समग्रता का विचार है।समग्र का व्यंजक है लेकिन यह समग्रता कहां से आई ?जरूर पूर्व-स्थित समग्रता के बिना यह समग्रता संभव नहीं है।इस तरह कथित पुस्तक की वस्तुगतता,समग्रता,और लेखन के पीछे और पहले एक विचार मौजूद रहता है। यह पहले मौजूद विचार,पूर्व-स्थित विचार ही वाक्-केन्द्रिक या शब्द-केन्द्रिक (लोगोसैंट्रिक) तत्व है जो वाचिक सत्य की प्रामाणिकता को मानकर चलता है।प्रकट पुस्तक के पीछे लेखक का बोलना छिपा होता है।उसकी समग्रता इसे किसी एक अर्थकेन्द्र की ओर ले जाने लगती है।''(देरिदा का विखंडन और साहित्य,1997,पृ.28)
देरि‍दा के लेखन में अवधारणाओं का महत्व है।अवधारणाओं का महत्व ऐसे समय स्थापित किया गया जब पश्चिम में अवधारणाओं के महत्व को खारिज किया जा रहा था।पुराने को ठुकराया जा रहा था।यह मान लिया गया था कि परवर्ती पूंजीवाद के वैचारिक प्रपंचों को समझने में पुराना ज्ञान एकदम बेकार की चीज है।आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकतावाद के अनेक पुरोधा अब तक की तमाम वैचारिक केटेगरी,अवधारणाओं आदि को अप्रासंगिक घोषित कर रहे थे।ऐसे में देरीदा के लेखन ने गंभीरता के साथ नई-पुरानी सभी अवधारणाओं की विस्तार से व्याख्या पेश की।इस क्रम में बहुत कुछ नया आया।साथ ही हमारा समाज सब कुछ खारिज करने वाली समीक्षा से बच गया।हम अवधारणाओं के लोप से बच गए। अवधारणाओं में सोचने की पध्दति का बचे रहना देरीदा का परवर्ती पूंजीवाद के प्रति सबसे बड़ा हस्तक्षेप है।
हिन्दी आलोचना के लिए देरि‍दा इस अर्थ में प्रासंगिक हैं कि हमारे यहां अवधारणा का संकट गहराता जा रहा है।पीसी जोशी ने तो 'अवधारणा का संकट' नाम से ही किताब लिख डाली।मार्क्‍सवादियों में रामविलास शर्मा ने मार्क्‍सवादी अवधारणाओं में नए के नाम पर सबसे ज्यादा समस्याएं पैदा की हैं।सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी शिविर के पतन के बाद इस शिविर के पक्षधर लेखकों के सामने अवधारणा का संकट सबसे विकराल रूप में आया।इसी तरह अमेरिकी भविष्यवादियों के यहां अवधारणा का संकट सबसे तीव्र रूप में अभिव्यक्ति पा रहा है।इसी तरह मासकल्चर के सिध्दान्तकारों खासकर समाज शास्त्रियों के यहां भी इस संकट को साफतौर पर देखा जा सकता है।अवधारण्ाा का संकट इस बात का द्योतक है कि पूंजीवाद गहरे संकट में है। सामाजिक विकास के क्रम में जब भी सामाजिक व्यवस्थाओं के सामने संकट या संक्रान्ति की अवस्था आई है अवधारणा का संकट सामने आया है।परवर्ती पूंजीवाद के संकट की अवस्था में हमेशा फ्रांस के विचारकों ने आगे बढ़कर इस संकट के हल तलाश करने की कोशिश की है।आधुनिक फ्रंासीसी विचारकों ने बड़े पैमाने पर सारी दुनिया के बौध्दिकों को प्रभावित किया है।खासकर उन बुध्दिजीवियों को प्रभावित किया है जो समाज में विकास के रथ को आगे ले जाना चाहते हैं।दर्शन,साहित्य,कला,संस्कृति,मासकल्चर आदि सभी क्षेत्रों में फ्रांसीसी बौध्दिकों ने नेतृत्वकारी भूमिका अदा की है।परवर्ती पूंजीवाद की कलाबाजियों से लड़ने का उनके पास बौध्दिक कौशल रहा है।इसके लिए ये लोग बार-बार परंपरा में गए हैं।पुराने दर्शन के पास गए हैं।वहां से विवाद खड़े करते हुए नए जमाने की जरूरतों के लिहाज से उन्होंने विचारों, धारणाओं आदि को खोला है।
देरि‍दा ने भी संकट की अवस्था में परंपरा के दरवाजे पर दस्तक दी।किंतु साहस के साथ।परंपरा के पास जाने के लिए,नए को व्यक्त करने के लिए,धारणाओं में सोचने के लिए,सही को सही और गलत को गलत कहने के लिए साहस की जरूरत होती है।जिस बुध्दिजीवी में साहस का अभाव है।वह बुध्दिजीवी कहलाने का हकदार नहीं है।साहस के तत्व को देरीदा ने महत्व दिया है।विचारों या जीवन में साहस के तत्व का प्रयोग जोखिम उठाए बिना संभव नहीं है।
बतर्ज देरि‍दा साहस और जोखिम ये दो बुनियादी तत्व हैं जो बुध्दिजीवी में होने चाहिए।मार्च 1998 में दिए एक साक्षात्कार में देरि‍दा ने कहा कि साहस एक वर्चु है।खासकर बौध्दिक वर्चु है।अक्षम और गैर-जिम्मेदार बुध्दिजीवियों में ह्रास की ओर जाने का साहस होता है।देरीदा ने लिखा है कि मैं यह नहीं सोचता कि आज सारे बुध्दिजीवी पतन की ओर जाने का साहस कर रहे हैं।मैं यह भी नहीं मानता कि वे 'उत्तर -इतिहास' और संशयवाद के शिकार हो चुके हैं।असल में ,'उत्तर -इतिहास', 'संशयवाद', 'बुध्दिजीवियों की भूमिका' आदि सवालों पर मीडिया की शैली में नहीं लिखा जा सकता।मीडिया में इन सवालों के संक्षिप्ततम जबाव देने से अच्छा है चुप रहो।कुछ लोग इसे अभिजनवाद कहेंगे,तो कहें।क्योंकि ये मसले जटिल हैं।इन्हें संक्षिप्त रूप में पेश करके सुलझाना संभव नहीं है।खासकर ऐसे बुध्दिजीवी को संक्षेप में समझाना मुश्किल है जो जनता का बुध्दिजीवी हो।
विश्व स्तर पर समाजवाद के पराभव पर चिन्ता व्यक्त करते हुए देरि‍दा ने 'स्पेक्टर्स ऑफ मार्क्‍स' कृति में लिखा कि आज एक नए किस्म के इंटरनेशनल के आयोजन की जरूरत है।आज विश्व स्तर पर सबसे ज्यादा एकता की जरूरत है।इस एकता को आप समाजवादियों की इंटरनेशनल जैसी एकता के रूप में परिभाषित नहीं कर सकते।इसके बावजूद मैं इंटरनेशनल पदबंध के इस्तेमाल के पक्ष में हूँ।इस पदबंध को रखने का अर्थ है क्रांति और न्याय की स्प्रिट को बनाए रखना।जिसके तहत वंचितों,मजदूरों आदि की एकता को राष्ट्र-राज्य की सीमाओं के बाहर ले जाकर गैर सरकारी तौर पर हासिल करना।इसके कुछ मानवीय लक्ष्य होंगे।
देरि‍दा ने कहा कि आज हमारे बुध्दिजीवी ग्लोबल प्लेग के शिकार हैं।वे एकदम हाशिए पर हैं।आज विश्व की दुर्दशा को कुछ आंकड़ों के जरिए अच्छी तरह समझ सकते हैं।मसलन् लाखों बच्चे जन्म लेते ही मर जाते हैं।पचास फीसदी औरतें उत्पीडन की शिकार होती हैं। साठ मिलियन गायब हो जाती हैं।सालाना 30 मिलियन औरतें कुपोषण की शिकार होती हैं। 23 मिलियन लोग एड्स के शिकार हैं।इनमें से 90 फीसदी लोग अफ्रीका में रहते हैं।वहां के बजट का पांच फीसदी हिस्सा एड्स पर खर्च हो रहा है।इसी तरह स्त्री भ्रूण-हत्या एवं बाल-श्रमिकों की भी बड़ी तादाद भारत सहित अनेक देशों में है।करोड़ों लोग अशिक्षित हैं। तकरीबन 140 मिलियन निरक्षर बच्चे हैं।मैं ये आंकड़े इसलिए बता रहा हूँ कि आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किस तरह की एकता की जरूरत है।यह एकता पार्टी,राष्ट्र आदि के आधार पर हासिल नहीं की जा सकती।इनमें से कोई भी इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठा नहीं सकता।मैं समझता हँ कि आज ग्लोबल पूंजीवाद का जमकर विरोध किया जाना चाहिए।
देरि‍दा ने कहा कि ग्लोबलाइजेशन की दो प्रमुख समस्याएं हैं प्रथम राज्य का लोप।दूसरा राजनीति का नपुंसकीकरण।इन दोनों समस्याओं के समाधान के लिए हमें दर्शन की ओर जाना चाहिए।आज की सभी राजनीतिक खोजों का दार्शनिक आधार है।वे दर्शन की धुरी हैं। असली राजनीतिक कार्रवाईयां हमेशा दर्शन से जुड़ी होती है।सभी राजनीतिक कार्रवाईयों, फैसलों आदि के अपने नियम होते हैं।हमें इन सबको जानकर राज्य के लोप का जमकर विरोध करना चाहिए।हमें राष्ट्र के उन रूपों का भी विरोध करना चाहिए जब वह राष्ट्रवाद के सामने समर्पण कर देता है।हमें विश्लेषित करके हर समय उसके नियम बनाने चाहिए।देरीदा ने कहा कि हमें सोवियत संघ के पतन से सबक लेना चाहिए।वहां सर्वसत्तावाद था।सर्वसत्तावाद से माक्र्सवाद की मुक्ति जरूरी है।सारा माक्र्सवाद त्यागने की जरूरत नहीं है।देरीदा ने लिखा कि '' वे चाहते हों या नहीं,जानते हों या नहीं,समूची पृथ्वी के तमाम पुरूष और स्त्रियाँ माक्र्सवाद के वारिस हैं।''
सामान्य तौर पर ग्लोबलाइजेशन के आने के बाद से बुध्दिजीवियों में यह धारणा पैदा हो गई कि अब यूटोपिया का अंत हो चुका है।इस पर देरीदा ने कहा कि यूटोपिया में आलोचनात्मक क्षमता होती है।आप इसे पूरी तरह त्याग नहीं सकते।यूटोपिया को लोग सहज रूप में स्वप्न,गैर-शिरकत,असंभव आदि से जोड़कर देखते हैं।इसका अर्थ है कि यूटोपिया को अस्वीकार करो।उसके लिए कार्रवाई मत करो।मैं भी बार-बार 'इम्पॉसिविल' की बात करता हूँ।इसका अर्थ 'यूटोपियन' नहीं है।बल्कि इसके विपरीत यह स्वयं को इच्छाओं की ओर मोड़ना है।कार्रवाई में जाना है।निर्णय पर लाना है।यह यथार्थ का रूप है। इसकी अपनी अवधि,अनिवार्यता आदि है।
आज सारी दुनिया में करोडों लोग शरणार्थी समस्या से जूझ रहे हैं।अनेक राजनीतिक दल और देश इस समस्या के आधार पर सामान्य जनता के जीवन में विषवमन करते रहते हैं। हमारे यहां संघ परिवार के लोग इस मामले में सबसे आगे हैं।शरणार्थी समस्या पर विचार करते हुए देरीदा ने लिखा कि इस समस्या का संबंध न्याय की धारणा से जुड़ा है। र्सशत्त आतिथ्य की धारणा को इसका आधार नहीं बनाया जा सकता।यदि कोई इसे राजनीति में लागू करना चाहेगा तो इसके प्रतिगामी असर होंगे। आतिथ्य के सिध्दान्त को बदलने के लिए हमें पूरी संस्कृति, आदतें, संस्कार,कानून आदि को बदलना होगा।
देरि‍दा ने कहा कि शरणार्थी समस्या के प्रति उन्मादकारी,राष्ट्रवादी प्रतिक्रियाएं आती रहती हैं। ये सामान्य लक्षण हैं।आज इस संदर्भ में कार्यभार तय करना बेहद जरूरी है। पिछले दिनों में 'रिफ्यूजी' शब्द की परिभाषा बदली है।'रिफ्यूजी',ं'एग्जाइल', 'डिपोटर्ेट', 'डिस्प्लेस्ड पर्सन', और 'विदेशी' पदबंध का अर्थ बदला है। इस समस्या पर विचार विमर्श करने के लिए भिन्न किस्म के विमर्श और व्यवहारिक प्रतिक्रिया की जरूरत है। इससे नागरिकता की राजनीति और राष्ट्र के साथ लगाव का अर्थ भी बदल जाएगा।कोशिश होनी चाहिए कि 'आतिथ्य का कानून' सकारात्मक हो।यदि यह असंभव है तो इसकी प्रत्येक को तहकीकात करनी चाहिए। अपनी आत्मा और चेतना के स्तर पर इस सवाल पर सोचना चाहिए।
देरि‍दा ने 'होस्पीटेलिटी' या आतिथ्य की धारणा के बारे में कहा कि आतिथ्य का अर्थ है बिनार् शत्त अन्य का स्वागत।अतिथि से प्रमाण मांगे बिना,नाम पूछे बिना,संदर्भ पूछे बिना स्वागत किया जाना चाहिए।अन्य के साथ यह पहला संबंध होगा।हम अपनी जगह, घर के दरवाजे , भाषा,संस्कृति,राष्ट्र,राज्य और स्वयं को खोल दें। बगैरर् शत्त के अतिथि के आगे खुलना होगा।जब मैं 'बिनार् शत्त' कहता हूँ तो यह शब्द भय पैदा करता है।जब मैं कहता हूँ कि मेरे घर,मेरी जगह,भाषा,संस्कृति,शहर,राष्ट्र आदि में बिनार् शत्त अन्य को आने दो। तो इसका अर्थ यह भी है कि जब अन्य मेरी जगह आएगा तो असुविधा पैदा कर सकता है। चीजें अस्त-व्यस्त कर सकता है।सब कुछ उलट-पुलट कर सकता है।उपेक्षा कर सकता। यहां तक कि नष्ट भी कर सकता है।इससे भी बुरा हो सकता है।पूरी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ सकता है।मैं इसके लिए तैयार हूँ।चूँकि यह बिनार् शत्त आतिथ्य है अत: इसमें अच्छा-बुरा कुछ भी हो सकता है।यह भी संभव है कि परंपरागत दोस्ती प्रतिगामी शक्ल ले ले।इसके बावजूद हमें बिनार् शत्त आतिथ्य पर अड़े रहना होगा।देरीदा ने आतिथ्य की नई धारणा के जरिए सारी दुनिया में उभर रही शरणार्थी समस्या पर विस्तार से विचार किया है। देरीदा की सहानुभूति शरणार्थियों के साथ है।देरीदा ने कहा कि ज्यों ही आप आतिथ्य की नई परिभाषा पर विचार करने जाएंगे आपको नए किस्म की नागरिकता की परिभाषा बनानी होगी।
देरि‍दा ने ग्लोबलाइजेशन का विरोध किया और इसके खिलाफ नए किस्म के विश्वव्यापी प्रतिरोध आंदोलन खड़े करने का आह्वान किया।देरीदा ने कहा कि मैं 'ग्लोबलाइजेशन' पदबंध का इस्तेमाल नहीं करता।यह अस्पष्ट धारणा है।यह कोई नई चीज नहीं है।बल्कि काफी पहले से चला आ रहा है।यह भ्रमित करने वाली धारणा है।इसमें अनेक धारणाएं,राजनीतिक चालाकियां,रणनीतियां आदि आ गई हैं।उल्लेखनीय है कि परवर्ती पूंजीवाद के मौजूदा दौर को ग्लोबलाइजेशन के नाम से पुकारे जाने के खिलाफ देरीदा अकेले विचारक नहीं हैं।बल्कि अनेक विचारक हैं।
देरि‍दा के यहां अवधारणाओं का खजाना है।देरि‍दा पर बात करने के लिए उसकी धारणाओं की सही समझ का होना बेहद जरूरी है।देरि‍दा के लिए ग्राम्माटोलॉजी वस्तुत: लेखन का विज्ञान है।इसे व्याख्यायित करने के लिए वह लेखन के परंपरागत मॉडल के परे जाता है।'लोगोसेंटरिज्म' के तहत बताता है कि ज्ञान की जडें भाषा में हैं।अब हम इन्हें खो चुके हैं। देरि‍दा के मुताबिक भाषा भगवान की देन है।अथवा किसी अन्य,पराशक्ति,विचार,महान स्प्रिट,सेल्फ आदि की देन है।यही हमारी भाषा,विचारों और एक्शन का मूलाधार है।उसी ने वायनरी रूपों को बनाया है।वायनरी की जो श्रृंखला मिलती है वह हायरार्की में अवस्थित है।
'बायनरी अपोजीशन' हायरार्की के रूप में आते हैं।यह लोगोसेंटरिज्म का परिणाम है।इस धारणा पर विचार करते समय देरीदा की ज्यादा रूचि मार्जिन या हाशिए में है।किंतु 'सप्लीमेंट' की धारणा भी महत्वपूर्ण है।यह धारण्ाा उसने रूसो से ली है।हिन्दी में इसे पूरक कह सकते हैं।देरीदा के यहां यह अतिरिक्त है,स्वयं में पूर्ण है।देरि‍दा का तर्क है जो पूर्ण है उसमें जोड़ा नहीं जा सकता।वहां पूरक की जरूरत नहीं होती।जहां अभाव है वहां 'ओरिजनरी लैक' यानी अनुपस्थित चीजों के सम्पूरक का प्रयोग किया जाना चाहिए।इसके साथ ही 'ट्रेस' यानी गैर-मौजूदगी के सूचक का प्रयोग किया जाना चाहिए।
विखंडन की रीडिंग रणनीति के कुछ सामान्य तत्व हैं।यहां जो 'अपोजिस्टस' हैं।वे एकीकृत हैं।एक-दूसरे पर निर्भर हैं।अन्तर्निहित हैं।इसीलिए उनमें एक की उपस्थिति दूसरे के बिना संभव नहीं है।विभेद और भिन्नता भाषा में निहित हैं।प्रत्येक शब्द भाषा के खेल में सक्रिय होता है।विखंडन के जरिए पाठ की अन्तर्विरोधी रीडिंग खत्म नहीं हो जाती।बल्कि पाठ में निहित अर्थ को पाठ में ही सरल बनाती है।
विखंडनकारी रीडिंग का तर्क है कि प्रत्येक पाठ स्वयं को विखंडित करता है।किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि पाठ का अंत हो गया है।बल्कि विचारोत्तेजक रीडिंग लेखन के रूपों का उद्धाटन करती है,वह शब्द और अर्थ के प्रति स्व-चेतन है।यह संभव है कि वह विश्रृंखलित यथार्थ पेश करे किंतु वह हमेशा भाषा में होती है।देरीदा का मानना है कि भाषा में भिन्नता होती है।भिन्नता को देरि‍दा ने सकारात्मक अर्थ में प्रयोग किया है।खासकर भिन्नता की संरचना में उसका प्रयोग किया है।देरि‍दा का मानना है कि अर्थ स्वयं सिगनीफायर में नहीं होता।बल्कि नेटवर्क में होता है।अन्य चीजों के संबंध में होता है।देरि‍दा का मानना है कि अस्तित्व के मूल में 'सार' नहीं 'भिन्नता' या डिफरेंस रहता है।देरि‍दा ने यह भी कहा कि परम अस्मिता नाम की कोई चीज नहीं होती।व्यक्ति में व्यक्ति जैसा कुछ भी नही होता।'ट्रांस हिस्टोरिकल सत्य' वस्तुत: भिन्नता का परिणाम है।भिन्नता के सिस्टम के बाहर कुछ भी नहीं है। देरि‍दा हमें 'खेल' या 'प्ले' पदबंध के साथ खेलने के लिए उत्साहित करता है।'खेल' में हार-जीत संभव है।अंत में सिर्फ खेल रह जाता है।देरि‍दा ने स्थान और समय के प्रति भिन्नता के सवाल उठाए हैं।वह टाइम और स्पेस के बीच व्यक्ति या मौजूदगी को रखकर देखता है। देरि‍दा ने आण्टोलॉजी के प्रत्युत्तर में हाण्टोलॉजी पदबंध का प्रयोग किया है।इसी अवधारणा के तहत उसने 'भूत' या 'घोस्ट' के रूपक का प्रयोग किया है।'स्पेक्टर्स ऑफ मार्क्‍स' कृति में पहलीबार देरि‍दा ने 'भूत' पदबंध का प्रयोग किया है।यह वस्तुत: परंपरागत अर्थ में तथ्यों की छानबीन की पध्दति का एक रूप है।इसके माध्यम से देरीदा बताना चाहते हैं कि तथ्यों को बार-बार संगठित किया जा सकता है।खासकर अतीत की घटनाओं को खोजने के लिए।देरीदा की नजर में डाटा दृश्य एवं काल्पनिक होते हैं।उनसे दृष्टि/ इमेज/ संगठन का दृश्य अथवा उसके पर्यावरण का पता चलता है।डाटा ऑर्किटेक्चर है, दूसरी ओर उसे प्रतीकात्मक व्यवस्था या तर्क के कच्चे डाटा पर आरोपित करते हैं।देरि‍दा ने लिखा है कि दिन के उजाले के अभाव में हमें भूत सताते हैं।वे दीवारों के जरिए आते हैं वे ऐसे गड्डे खोदते हैं जिन्हें भरा नहीं जा सकता। 'खोरा' पदबंध के जरिए देरीदा 'अन-अन्तर्विरोधी' तर्कों का उल्लंघन करते हैं।'नेगेटिव थियोलॉजी' के जरिए देरि‍दा बताते हैं कि प्रत्येक भाषा अधूरी होती है।सत्य तो अतिसारतत्व है।या मनुष्य की परिधि के बाहर है। देरि‍दा ने 'रेजिस्टेंस' की धारणा का व्यापक प्रयोग किया है।यह धारणा मूलत: मनोशास्त्र की देन है।मनोरोगी की प्रतिरोध भावना को थेरपिस्ट कम करता है।वह मरीज के विद्रोह का प्रतीक है।इसमें 'सहयोग' एवं 'प्रतिरोध' अन्तर्निहित है।इस धारणा का ऐतिहासिक महत्व है। मनोशास्त्री के यहां प्रतिरोध का अर्थ बगावत नही है,क्रांति नहीं है बल्कि विश्लेषण है।
देरि‍दा ने सवाल उठाया कि आदमी कब मरता है ? आदमी की जब इच्छाशक्ति मर जाती है तब मर जाता है।यह बात देरि‍दा ने गिलिस देल्युज की कृति ''दि लॉजिक ऑफ सेंस''(1969) के हवाले से कही।देरि‍दा ने लिखा कि प्रत्येक मौत विशिष्ट और असामान्य होती है।एक मर्तबा देल्युज ने कहा था कि हमें जानना चाहिए कि किताबों की दुनिया में क्या हो रहा है।अनेक वर्ष बीत गए,हम इन दिनों प्रतिक्रिया के जगत में जी रहे हैं। प्रत्येक क्षेत्र में सिर्फ प्रतिक्रिया ही दिखाई दे रही है।यह संभव नहीं है कि पुस्तक प्रतिक्रिया से मुक्त हो।वह इससे बची रहे। आज लोग साहित्य,न्याय,अर्थनीति और राजनीति में पक्षपात कर रहे हैं।यह सारा कार्य प्रतिक्रियावादी है।षड़यंत्र की तरह पहले से बनाया हुआ है।पूरी तरह समाज को तोड़ देने वाला है। यही वह जगह है जहां हमें मुक्ति के सवालों को सुनियोजित ढ़ंग से विश्लेषित करना चाहिए।
देरि‍दा की कृति 'दि स्पेक्टेटर ऑफ मार्क्‍स' में पहलीबार 'भूत' के रूपक का प्रयोग मिलता है।यहां 'भूत' का बहुवचन में प्रयोग किया गया है।इस रूपक के बहाने देरीदा मार्क्‍सवाद की अप्रासंगिकता नहीं बल्कि प्रासंगिकता पर रोशनी डालते हैं।साथ ही मार्क्‍सवाद की कमजोरियों और सर्वसत्तावादी स्वरूप पर प्रहार करते हैं।देरि‍दा पर विचार करते समय हमें पत्रकारिता की शैली में लिखी बातों और विद्वतापूर्ण अकादमिक समालोचना में फर्क करना चाहिए। पत्रकारिता की समीक्षा दबाव में लिखी जाती है।जबकि अकादमिक समीक्षा दबाव रहित होती है।पत्रकारिता की समीक्षा विखंडन का इस्तेमाल करते हुए हत्या करती है या मौत की घोषणा करती है।जबकि विद्वतापूर्ण समीक्षा शिक्षित करती है।अध्ययन के लिए प्रेरित करती है।सामान्य तौर पर कठमुल्ले माक्र्सवदियों में देरीदा को लेकर संशय और विरोध का भाव घर किए हुए है।
देरि‍दा के संदर्भ में 'शरीर','आत्मा',और 'भूत' ये तीन पदबंध विचार करने योग्य हैं। 'शरीर' के बगैर आत्मा के भूत बन जाने की संभावना है।देरीदा इसी पध्दति का इस्तेमाल करता है।वह बताता है कि 'शरीर' से 'आत्मा' निकल गई और 'शरीर' ,'भूत' हो गया।सवाल यह है कि क्या भूतों से बात की जा सकती है।एक नहीं,एकाधिक भूतों से बात की जा सकती है। क्या उनके प्रति सवाल उठाए बगैर बात की जा सकती है ?उल्लेखनीय है कि 'भूत' के रूपक का रैनेसां में खूब इस्तेमाल किया गया।'भूत' से हमेशा लंबा और मारक संघर्ष चलता है।यह मूलत: धार्मिक आस्था पर टिकी धारणा है।भूत उस आस्था के प्रति सवाल पैदा करता है जिसे अपील करता है।रैनेसां में आस्था प्रबल थी।किंतु उत्तर रैनेसां में कल्पना प्रमुख हो गई।'शक्ति के भूत' की बजाय अब 'कल्पना शक्ति' पर जोर दिया गया।इसी क्रम में हम मौत की सीमा लांघकर जीवन की ओर आए।'कल्पना की शक्ति' को रोमैण्टिशिज्म ने फैलाया।
देरि‍दा को पढ़ते हुए पाते हैं कि उनके यहां हास्य चरित्रों एवं व्यंग्य शैली का व्यापक प्रयोग किया गया है।द्विअर्थी चरित्रों का खूब प्रयोग मिलता है।ऐसा करते हुए देरि‍दा कॉमिक अंत की ओर ले जाते हैं। कॉमिक विधा और कॉमिक चरित्रों का जमकर प्रयोग करते हैं।असल में दर्शन के प्रति व्यापक पैमाने पर जो अरूचि पैदा हुई है उससे मुक्ति के अस्त्र के तौर पर 'कॉमिक' और 'कॉमेडी' के रूपों का व्यापक प्रयोग करते हैं।इन दोनों में 'विच्छिन्नता'और 'मनमानापन' ये दो तत्व प्रमुख हैं।इसके अलावा कॉमेडी प्रभुत्वशाली समाज का प्रतिनिधित्व करती है।मनमाने नियमों के तहत कार्य करती है।देरीदा ने विखंडन में प्रतीक के मनमानेपन को ग्रहण किया।यह उनके विखंडन का प्रस्थान-बिन्दु है।
देरि‍दा ने पाठ में घटना और दुर्घटना का व्यापक प्रयोग किया है।किंतु सचेत रूप से इसके लक्षणों से पलायन करते हैं।वे पाठ में 'क्षेपक' और 'टुकडों' में कहने की पध्दति का प्रयोग करते हैं।इसी के जरिए मौजूदा जगत को देखते हैं।कॉमेडी का अर्थ है कि किसी भी चीज का कोई मतलब नहीं है, अंत हो चुका है,समाप्त हो चुकी है,पूर्ण हो चुकी है। कॉमेडी में आम तौर पर मनमानापन होता है।व्यवधान उसमें बाद में आता है।देरीदा के यहां विखंडन का विमर्श इच्छा,आग्रह,नाम आदि के जरिए आता है।इच्छा और आग्रह अर्थ देते हैं। कुछ कहना चाहते हैं।उनकी उपस्थिति बताती है कि वे चुके नहीं हैं।इच्छाएं कभी पूरी नहीं होतीं।उन्हें हमेशा स्थगित रखते रहते हैं।ऐसा करते समय हमें कुछ भी नहीं मिलता।देरीदा की नजर में सभी किस्म की प्रस्तुतियां पुनर्प्रस्तुतियां हैं।इनके उद्भव की शुध्दता को लेकर सब समय बाधाएं आती रही हैं।
कॉमेडी में इच्छा और आग्रह हमेशा पुनरूत्पादक होते हैं।उत्पादक नहीं होते।कॉमेडी में सेक्स पर मुख्य जोर रहता है।क्योंकि सेक्स समानतावादी है,स्वाभाविक है। यह मनुष्य के सामान्य हितों को सामने लाता है।यह ताकत और समृध्द है।देरीदा ने अपने दार्शनिक नजरिए में ''फेलोगोसेण्टरिज्म'' की रणनीति अपनाते हुए 'मास्टरवेशन' या हस्तमैथुन की पध्दति के बहाने दर्शन में बौध्दिक स्खलन करते हैं।विखंडन की रीडिंग में हमेशा जोखिम रहता है। 'कास्ट्रेशन' होता है।यहां पाठ कॉलम में विभक्त होता है।यह दर्शन का स्खलन है।यह अंतरालों का उद्धाटन करता है।स्त्री का उद्धाटन करता है।स्त्री की रेडीकल इमेज को सामने लाता है।दर्शन इस पर निर्भर है।वह उसे नियंत्रित नहीं करता है।विखंडन ने स्त्रीत्व का नोटिस लिया है।वह स्त्री की तरह सोचता है।असल में स्त्री का स्खलन नहीं होता।बल्कि वह उर्वर होती है।जनती है।खेलती है।अंतहीन खेलती है।वह न तो सिगनीफाइड है और न सिगनीफायर है।न प्रस्तुति है और न पुनर्प्रस्तुति है।वह न दिखती है न छिपती है।
मनमानापन ,असंबध्दता,मुखौटे और नकल आदि के जरिए कॉमेडी अर्थ सृष्टि करती है।उसके लिए आत्म चालू चीज है।कॉमेडी में व्यक्तिगत की बजाय टाइप चरित्रों में प्रस्तुति की जाती है। टाइप चरित्र होने के कारण उनका न तो विकास होता है और न वे बदलते हैं।बल्कि वे 'होस्टाइल' जगत में बने रहते हैं।वे वैविध्य रूपों में आते हैं।उनके अंदर भाषागत वैविध्य होता है।उनका व्यक्तित्व तरल और बहुस्तरीय होता है।द्विअर्थी होता है।भाषा का विस्तार होता है।कॉमिक चरित्रों के स्वभाव और मुखौटे में फर्क होता है।शब्द एवं अर्थ में फर्क होता है।इनमें जितनी बड़ी मानवता दिखानी होती है उतने ही बड़े मुखौटों की जरूरत होती है।यहां प्रत्येक चीज को सतह पर और अनिवार्य प्रस्तुति के रूप में पेश करना होता है।कॉमेडी में मुखौटे ही विखंडन का सत्य हैं।किंतु सत्य को कभी सत्य के जरिए उद्धाटित नहीं कर सकते।सत्य जब गैर-सत्य में आता है तब ही प्रसार पाता है।सुशोभित होता है।कला रूप बनता है।यहां आत्म की खोज की जाती है।आत्म का उद्धाटन किया जाता है।अपनी मौजूदगी का अहसास कराया जाता है।अपनी पहचान को सही शब्द और नाम से पेश किया जाता है।आत्म हमेशा कहानी का अतिक्रमण करता है।स्वयं को व्यक्त करता है। इसे आप तब तक नहीं मानते जब तक वह पुनरावृत्ति न करे।पुनरावृत्ति में ही वह जोड़ता है। आत्म के लिए पूरक की जरूरत नहीं होती।लेखन में जनतंत्र तब आया जब इतिहास का अंत हो गया।व्यक्तिगत का भाषा के गतिशील दर्पण में लोप हो गया।मानवता के बंधनों को तोड़ा।भाषा की परंपरा बनायी।
कॉमेडी में यू-टोपिया का बड़ा महत्व होता है।अन्य लोग इसे तर्क या विमर्श कहते हैं। कॉमेडी स्वभावत: त्रासदी विरोधी है।यह यूटोपिया से प्रेरित है।निष्कर्ष पर पहुँचती है। परिप्रेक्ष्य हासिल करती है।कॉमेडी का कोई निश्चित स्थान नहीं होता।दैनंदिन जीवन की सीमाओं का बंधन नहीं होता।समय के साथ जुड़े परंपरागत और प्रभुत्वशाली रूपों से अपने को पृथक् कर लेती है।उनके परे ले जाती है।यहां तक कि उसमें विवेकवाद एवं नैतिकता का परंपरागत संदर्भ भी नहीं होता।बल्कि वह इन्हें चुनौती देती है।कॉमेडी की तरह ही देरीदा का विखंडन स्थानरहित है।यहां से वे दर्शन से संवाद करते हैं।विखंडन की कोई निश्चित जगह नहीं है।विखंडन न तो भीतर होता है और न बाहर होता है।बल्कि घटित होता है।यह घटना नहीं है बल्कि इसे घटना है।दूसरी ओर इसमें निरंतर नए संदर्भ शामिल होते रहते हैं।इसीलिए यह अनिश्चयात्मक है।अनिश्चयात्मकता का अर्थ है गैर- अवधारणात्मक।यह व्यवस्था में अन्तर्निहित होता है।प्रतिरोध करता है।असंगठित करता है।अनिश्चयात्मक होने के कारण ही इसे भाषा में 'यू-टोपियाज' कहते हैं।पाठ में यह छिद्र की तरह है।पाठ में पंक्चर की तरह है।यह पंक्चर ही पाठ को 'टेक्चर' देता है।उसका स्थानरहित होना उसका संसाधन है।अर्थ का संक्षित भंडार है।अर्थ की खोज और अर्थ के सृजन का आधार है।देरीदा के यहां पाठ का जो यूटोपियन अर्थ मिलता है उसमें सिगनीफिगेटिव कॉमेडी के तत्व मिलते हैं।वह बातचीत में आनंद लेता है।उत्सव मनाता है।न स्वाद पर प्रहार करता है।नैतिक एवं राजनैतिक बिन्दुओं को उभारता है।परमाणु अस्त्रों के प्रसार पर प्रहार करता है।वंचितों को उभारता है।हाशिए के लोगों के प्रति आग्रहशील है। हाशिए के लोगों पर ही लिखना पसंद करता है।देरीदा के यहॉ मार्जिन महत्वपूर्ण है।यह वैसे ही है जैसे कोई पेण्टर अपनी पेण्टिंग के चारों ओर हाशिए छोड़ता है।हाशिए की खूबी यह होती है कि वे न तो व्यवस्था के अंदर होते हैं और न बाहर होते हैं।वे यह भी बताते हैं कि व्यवस्था या सिस्टम बंद नहीं है।व्यवस्था में आत्मनियंत्रण नहीं होता।वे जैसे थे वैसे ही हैं। मार्जिन या हाशिया एक तरह से 'लूज एण्डस' है।वे ही विखंडन का विमर्श तैयार करते हैं।वे उस संरचना को ध्वस्त करते हैं जिसका वे हिस्सा हैं।इसीलिए तर्क की व्यवस्था का उद्धाटन करने के क्रम में तर्क को उलटा कर देते हैं।यह सबवर्जन ही कॉमेडी है।यही देरीदा की विशेषता है।कॉमेडी की तरह देरीदा के यहां भी इमीटेशन का प्रयोग होता है। देरि‍दा पाठ के दर्शन को इमीटेशन के जरिए खत्म करते हैं।वह विडम्बना में जीते हैं। विडम्बना को हमेशा बनाए रखते हैं।विडम्बना के बने रहने का अर्थ है स्वतंत्रता और भविष्य का बने रहना।देरीदा सत्य के मूल्य को चुनौती नहीं देते।और न नष्ट ही करते हैं।बल्कि उसे व्यापक संदर्भ में विश्लेषित करते हैं।वे अतीत के दार्शनिकों-विचारकों की उपेक्षा नहीं करते।खारिज नहीं करते।बल्कि बार-बार पढ़ते हैं।वस्तुओं पर वे विखंडनकारी हमला करते हैं।यह नष्ट करने वाला हमला नहीं है।बल्कि निर्माण करने वाला हमला है।वे अतीत के दार्शनिकों को जन्म देते हैं।उभारते हैं।उन्हें राहत देते हैं।विरेचित करते हैं।यह एक तरह की वैधतामूलक कॉमिक राहत है।विडम्बना है।यह विडम्बनापरक खेल है।अपने और अन्य के साथ संवाद है।यह पूर्ण सामाजिक के साथ निर्मितिमूलक सामाजिकता है।यह पलटती है।भिन्नता को सामने लाती है।देरि‍दा कॉमेडी की तरह भविष्य को प्राथमिकता देते हैं। भविष्य को सुसंगत रूप में पेश करते हैं।सुसंगत को बताने के लिए जरूरी है कि हमेशा असंगत को बताया जाए।यही देरीदा के नजरिए का वैशिष्टय है।
भारतीय समाज में जनतंत्र के मौजूदा स्वरूप और उसकी कारगुजारियों से प्रत्येक व्यक्ति जनतंत्र के प्रति संदेह व्यक्त करने लगा है।जनतंत्र के मौजूदा प्रदूषित रूप से बचने का सटीक रास्ता देरीदा ने सुझाया है।जनतंत्र की प्रचलित धारणाओं और सैध्दान्तिकी को खारिज करते हुए देरीदा ने जिस जनतंत्र की वकालत की है उससे सभी लोग सीख सकते हैं। देरि‍दा के लिए जनतंत्र भविष्य का सपना नहीं है।यह कोई यूटोपिया भी नहीं है।इसे राष्ट्र-राज्य,व्यवस्था के मौजूदा तंत्र के दायरे में रखकर नहीं समझा जा सकता।देरीदा के लिए जनतंत्र का अर्थ अभी और इसी समय है।इसे वे तत्काल लाना चाहते हैं।यदि कोई व्यक्ति जनतंत्र लाना चाहे तो ला सकता है।इस संदर्भ में वे कांट से एक हद तक सहमत होते हुए कांट से आगे निकल जाते हैं।कांट के यहां जनतंत्र का अर्थ है कॉस्मोपोलिटिकल। इसकी कुछर् शत्ते हैं।देरि‍दा जनतंत्र को इसके दायरे से भी परे ले जाते हैं। देरि‍दा के अनुसार लोकतंत्र का अर्थ है न्यूनतम समानता।आप जनतत्र को तत्काल अर्जित कर सकते हैं र्बशत्ते आप समानता,न्याय,अन्य के प्रति सम्मान,अन्य के कार्य को सम्मान दें,इन सब बातों का अनुभव करें।देरीदा ने कहा जनतंत्र भविष्य की चीज नहीं है।इसे तत्काल आना चाहिए।नए जनतंत्र की धारणा नागरिकता और राज्य की धारणा से भिन्न है।आप जनतंत्र को जब तक वास्तव अर्थों में महसूस नहीं करते,उसके अनुभवों से नहीं गुजरते जनतंत्र की नई धारणा निर्मित नहीं होगी।इसमें गैर-सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत है। राजनीतिक पहलकदमी की जरूरत है।नए किस्म की नागरिकता की परिभाषा बनाने की जरूरत है।
देरि‍दा के विचारों का विश्लेषण करते समय उनकी चर्चित कृति 'मित्रता की राजनीति' को नहीं भूलना चाहिए।यह कृति उनके राजनीतिक विचारों के मर्म को सामने लाती है।इसी कृति में देरि‍दा ने रेखाकित किया है कि राजनीति का मित्रता और अतिथि की धारणा से गहरा संबंध है।देरीदा राजनीति की वकालत करते हैं।किंतु परंपरागत अर्थ से अलग हटकर राजनीति के नए क्षितिज खोलते हैं।देरीदा ने कहा कि मैं राजनीति को राष्ट्र-राज्य, राजनीतिक शासन आदि के संदर्भ में नहीं देख रहा हूँ,बल्कि मेरे लिए राजनीति व्यक्तिगत प्रतिबध्दता है।यह 'स्पेक्टेटर ऑफ मार्क्‍स' में है।प्रतिबध्दता को व्यवहार में व्यक्त होना चहिए।माक्र्स के पाठ,सिध्दान्तों आदि का अध्ययन करने के लिए कुछ व्यक्तिगत प्रतिबध्दताएं जरूरी हैं।इसी को मैं राजनीति कहता हूँ।देरीदा की राजनीतिक प्रतिबध्दता की धारणा राजनीतिक दल के कार्यक्रम या विचारधारा की प्रतिबध्दता से एकदम भिन्न है।परंपरागत जनतांत्रिक राजनीति से अलग है।हमारे देश में राजनीतिक दलों के कार्यक्रम और विचारधारा से प्रतिबध्दता को ही राजनीतिक प्रतिबध्दता मान लिया गया है।ऐसे अधिकांश प्रतिबध्द लोग जीवन में पग-पग पर अ-जनतांत्रिक कार्य-व्यवहार में लिप्त पाए जाते हैं। इसके कारण सामान्य लोगों में जनतंत्र की बजाय सर्वसत्तावादी राजनीति की ओर रूझान पैदा होते हैं।ऐसे लोगों में व्यक्तिगत तौर पर किसी भी किस्म की राजनीतिक प्रतिबध्दता नहीं मिलती।
देरि‍दा ने मित्रता को राजनीति के साथ रखकर विश्लेषित किया है।राजनीतिक दर्शन में मित्रता हाशिए की धारणा है।देरि‍दा ने लिखा है कि प्रत्येक राजनीतिक विचारक, दार्शनिक आदि ने मित्रता के ऊपर विचार किया है।मित्रता के आधार पर न्याय और जनतंत्र को परिभाषित किया है।मित्रता कई तरह की होती है।खासकर अरस्तू के यहां तीन तरह की मित्रता के बारे में विवेचन मिलता है।अरस्तू की नजर में मित्रता वर्चु है।पहली कोटि में वह मित्रता आती है जो वर्चु है।जो दो व्यक्तियों में है।इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी कोटि उस मित्रता की है जिसका आधार उपयोगिता है।यह राजनीतिक मित्रता है।तीसरी मित्रता आनंद के आधार पर होती है।इस कोटि की तरफ युवाओं का व्यापक रूझान पाया जाता है।अरस्तू कहते हैं कि दैनन्दिन जीवन में आए दिन सुनते रहते हैं कि राजनीतिक लोगों में हमें अपने मित्र बनाने चाहिए।किंतु यह भी संभव है कि कोई व्यक्ति राजनीतिक तौर पर दोस्त हो किंतु व्यक्तिगत तौर पर शत्रु हो।व्यक्तिगत तौर पर मित्र हो किंतु राजनीतिक तौर पर शत्रु हो।यह भी संभव है कि कभी न्याय के लिए मित्रता को धोखा देना पड़े।मित्रता का अतिक्रमण करना पड़े।
देरि‍दा ने अरस्तू से लेकर आज तक के सभी प्रमुख दार्शनिकों के मित्रता संबंधी चिन्तन पर गौर करते हुए मित्रता को नए रूप में परिभाषित किया है।सदियों से यह सवाल विवाद के केन्द्र में रहा है कि मित्र कौन ?देरीदा मित्रता को भगवान और स्त्री के दायरे के बाहर ले जाते हैं।अरस्तू के यहां मित्रता के पांच तत्व पाए जाते हैं।ये मित्रता की पांच बुनियाद भी हैं।1.मित्र की रक्षा के लिए शुभकामना करना,स्वयं से प्यार करना।2.मित्र जिन्दा रहे,सकुशल रहे इसकी कामना करना।3.अन्य के साथ रहना,4मित्र की समान अभिरूचियां हों।5.आपस में सुख,दु:ख बांट सकें।अरस्तू के यहाँ पहली मित्र माँ है।उसके साथ आप सुख,दु:ख बांट सकते हैं।माँ अपने बच्चे से सचमुच में प्यार करती है।प्यार का ढोंग नहीं करती।इसका अर्थ यह है कि मित्रता समान लोगों में नहीं हो सकती।बच्चे और माँ में किसी भी तरह समानता नहीं है।मित्रता की भावना को कार्रवाई या एक्ट में संकुचित नहीं कर सकते।गौर करें तो पाएंगे कि माँ को हम मित्रता के दायरे से बाहर रखते हैं।भारतीय परंपरा में पिता को मित्र का दर्जा मिला है किंतु माँ को मित्र का दर्जा नहीं मिला है।
देरि‍दा ने लिखा है कि माँ को हम मित्रता के दायरे के बाहर इसलिए रखते हैं क्योंकि वह बदले में प्यार पाने की आकांक्षा के बिना प्यार करती है। सच है कि वह मित्र है क्योंकि वह अन्य को प्यार करती है।वह उसे प्यार करती है जो उसका अभी तक मित्र नहीं बना है।सामान्य तौर पर यह तथ्य हमारी ऑंखों से ओझल रहता है।अरस्तू ने मित्रता के जिन पांच तत्वों की चर्चा की है उसमें 'सेल्फ लव' या निज प्रेम को सबसे ऊँचा दर्जा दिया है।किंतु यह सामने तब ही आता है जब माँ सामने आती है।अरस्तू की नजर में माँ सबसे अच्छी मित्र होती है।
अरस्तू सिर्फ मित्र के गुण ही नहीं बताते बल्कि बताते हैं कि मित्रता का अर्थ क्या है ?मित्र वह है जो अपने मित्र की भलाई की कामना करे।उसकी दीर्घायु और सुखी जीवन की कामना करे।मॉ ऐसी ही कामना अपने बच्चे के लिए करती है।संकट की स्थिति में जो मदद करता है वह मित्र है।देरीदा को माँ का मित्र रूप पसंद है।वह कहता है माँ जब प्यार करती है तो पूर्णत: प्यार करती है।वह प्यार पाए बिना प्यार करती है।वह स्वयं मित्र बन जाती है।यह उसका दुर्लभ गुण है।ऐसा करते हुए वह स्वयं से ही प्यार करने लगती है।देरीदा इसी तत्व को उभारते हैं।वे 'स्वयं से प्यार' की धारणा को मित्रता की बुनियाद बनाते हैं।'स्वयं से प्यार' वस्तुत: निज की उपस्थिति का एहसास पैदा करता है। देरीदा ने लिखा है कि व्यक्ति यदि स्वयं से प्यार करता है तो अन्य से भी प्यार करेगा।'स्वयं से प्यार' मित्रता का महान गुण है।
स्व से प्यार करने वाला व्यक्ति अहंकार से मुक्त होगा।व्यक्ति का एक मित्र नहीं होता।बल्कि अनेक दोस्त होते हैं।जिसके अनेक दोस्त होते हैं उसका कोई दोस्त नहीं होता। इसी अर्थ में देरि‍दा ने कहा कि व्यक्ति का एक दोस्त नहीं होता।दोस्ती का एक रूप भाईचारे का भी है।सिसरो,माण्टेगनी,कार्ल स्मिट आदि के विचारों के विश्लेषण के क्रम में देरि‍दा ने भाईचारे और मित्रता के अन्तस्संबंधों पर विस्तार से विचार किया है।इन विचारकों ने मित्रता को रक्तसंबंधों के दायरे से बाहर निकालकर सार्वभौम मित्रता के मानवतावादी दायरे में लाकर खड़ा किया।मित्रता और जनतंत्र का दायरा बड़ा किया।कार्ल स्मिट के विश्लेषण के क्रम में देरि‍दा ने मित्रता के अगले विकास के रूप में भाईचारे को देखा।देरीदा ने लिखा कि बेहतर मित्रता वह है जो स्वाभाविक है।प्रतीकात्मक मित्रता बेहतर मित्रता की कोटि में नहीं आती।ऐसी मित्रता के शत्रुता में बदल जाने का खतरा बना रहता है।इसीलिए देरि‍दा ने मित्रता को मित्र-शत्रु की कोटि से बाहर रखकर देखने की हिमायत की।यदि ऐसा नहीं करते तो मित्र कब शत्रु हो जाएगा और शत्रु कब मित्र बन जाएगा हम सोच नहीं सकते।देरीदा ने इसीलिए लिखा कि मित्रता में दोस्ती और दुश्मनी दोनों की समान संभावनाएं होती हैं।यह भी संभव है कि भाईचारे के बिना मित्रता हो।युध्द और शत्रु के दायरे के परे प्रेम और मित्रता हो।मजेदार बात यह है कि देरि‍दा के मित्रता विमर्श में बहिनें और औरतें शामिल नहीं हैं।इसका अर्थ यह नहीं है कि मित्रता और राजनीति के दायरे में औरतों का प्रवेश निषिध्द है।
देरीदा ने अरस्तू के प्रसिध्द वाक्य -''हे मेरे मित्र,मेरा कोई मित्र नहीं है''- को व्याख्यायित करते हुए कहा है कि जिसके बहुत मित्र होते हैं उसका कोई मित्र नही होता।देरीदा ने जनतंत्र के परिप्रेक्ष्य में मित्रता की व्याख्या की है।देरीदा ने लिखा कि जनतंत्र में सब समान हैं। सिर्फ भाई -भाई ही समान नहीं हैं,सब समान हैं।मित्रता का राजनीति से संबंध है।यह प्रचलित अर्थ में राजनीति नहीं है।बल्कि 'ध्यानाकर्षण की राजनीति'' है।इसका वह दोहरे अर्थ में इस्तेमाल करता है।एक तरफ इसमें सुनना,चेतना और स्वयं पर ध्यान केन्द्रित करना शामिल है।दूसरी ओर इसमें इंतजार,अनुमान और अनुभव से अधिक खुलापन शामिल है। इसका पूरा स्वरूप अन्य के सामने खुलता है।उस समय खुलता है जब आप अन्य को अन्य की तरह स्वीकृति दें।अन्य के रूप में इंतजार करें।जिम्मेदारी और एकीकरण का रूप तब उभरता है जब पुनरावृत्ति होती है,जब आप मतभेद व्यक्त करते हैं।मित्रता हमेशा एकाधिक लोगों से होती है।मित्रता तब होती है जब आप अन्य को अन्य की तरह देखें,अन्य को समान नजरिए से देखें। इसी क्रम में बाद में देरीदा ने 'रेडीकल डेमोक्रेसी' की धारणा व्यक्त की।इसका अर्थ है जनतंत्र को सभी किस्म की सीमाओं से परे ले जाओ,उदार राज्य,राष्ट्र, भाईचारा,राजनीतिक दलों के दायरे से परे ले जाओ।

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