गुरुवार, 9 जुलाई 2009

लोक संस्‍कृति‍ का मासकल्‍चर में रूपान्‍तरण

लोक संस्कृति और लोक कलाओं का उत्तर - आधुनिक अवस्था में स्वरुप बुनियादी तौर पर बदल जाता है। इन कला रुपों में दैनन्दिन जीवन की गहरी छाप होती है। उत्तर -आधुनिक स्थिति इनका औद्योगिकीकरण्ा कर देती है। उन्हें संस्कृति उद्योग का माल बना देती है। उनका मानकीकरण करती है।उनमें व्याप्त स्थानीयता का एथनिक संस्कृति के नाम पर दोहन करती है।इनकी प्रतिरोध क्षमता खत्म कर देती है। अब ये कला रुप सजावट की वस्तु और बाजारु कला रुप मात्र होकर रह जाते हैं। संस्कृति उद्योग की कलाकारों और कलाओं की परंपरा को बचाने में कोई रुचि नहीं होती । उसकी बुनियादी तौर पर इनसे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने में रुचि होती है।संस्कृति उद्योग के द्वारा इनका विस्तार होता है। साथ ही कलाओं के प्रति अज्ञान और उनसे दूरी भी बढ़ती है। हम संस्कृति को जितना उद्योग के हवाले करते जाते हैं उतना ही सांस्कृतिक अलगाव के शिकार बनते जाते हैं।आज सांस्कृतिक सीढ़ी पर जो सबसे उपर खड़ा है वह जनता की संस्कृति से सबसे ज्यादा अलग-थलग है।
असल में,कलाएं जब संस्कृति उद्योग का हिस्सा बन जाती हैं, तब उनका मासकल्चर में रुपान्तरण हो जाता है। अब हम संस्कृति या लोक संस्कृति के अंग नहीं रह जाते अपितु मासकल्चर का अंग बन जाते हैं।मासकल्चर मूर्ख और पेटू की संस्कृति है।अहं की संस्कृति है। सामाजिक ज़ुर्म की संस्कृति है।गौण वस्तुओं की संस्कृति है। यह नकल की संस्कृति है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में '' आज हम बाजार की भीड़ और शोरगुल में सम्मिलित हो रहे हैं,नीचे उतर आए हैं,ओछे हो गए हैं....बड़े-बड़े अक्षरों के और उॅचे स्वर के विज्ञापनों से अपने को औरों से बड़ा घोषित करने में सेकोच नहीं होता।मजे की बात यह है किजो कुछ हम कर रहे हैं सब नकल है। इसमें सत्य की मात्रा न के बराबर है।इसमें शान्ति नहीं ,संयम नहीं ,गाम्भीर्य नहीं ,शालीनता नहीं । इस नकल युग के आने के पहले हममें एक स्वाभाविक मर्यादा थी।इस मर्यादा से निर्धनता में भी हम संपन्न थे।उस समय मोटा खाने से या मोटा पहनने से हमारा गौरव घटता नहीं था।''
'' आज हमारी भद्रता सस्ते कपड़ों से अपमानित होती है ,घर में विलायती ढ़ंगकी सजावट न हो तो उस पर आंच आती है।बैंक में हमारे नाम परजो अंक लिखे हैं वे कम हों तो हमारी भद्रता कलंकित होती है।हम यह भूल बैठे हैं कि ऐसी प्रतिष्ठा को सिर पर ढ़ोकर उसका आदर करना वास्तव में अत्यन्त लज्जा का विषय है। जिन बेकार उत्तेजनाओं और उन्माद को हमने सुख मानकर चुना है उनसे हमारे समाज का अन्त:करण दासता के पाश में जकड़ा जा रहा है।''
कहने का तात्पर्य यह कि मासकल्चर ने भद्रता और सामाजिक हैसियत को वस्तुओं से जोड़ दिया है। भद्रता को बाजार के नियमों से जोड़ा। फलत: भद्रता सतही और प्रदर्शन की चीज हो गयी।उसका मानवीय आत्मीयता से संबंध टूट गया।लोक संस्कृति सामूहिक बोध पैदा करती थी किन्तु मासकल्चर ने प्रभेदों को पैदा किया।ये प्रभेद आंतरिक और बाह्य दोनों हैं। इकसार संस्कृति के कारण हमारी प्रभेदों पर नजर नहीं जाती ,इसके परिणामस्वरुप मासकल्चर से उपजे तनावों , अन्तर्विरोधों , सामाजिक वैषम्य और दरिद्रता को हम देख नहीं पाते। मासकल्चर के द्वारा पैदा की गयी समस्याओं के समाधान हम अमरीका की नकल पर कर रहे हैं इससे समस्याएं और भी उलझेंगी।
प्रश्न उठता है कि प्रभेद कहां पैदा होते हैं ? वहीं जहाँ अविश्वास और भय का पदार्पण होता है, जहां एक दूसरे को धोखा देकर हराने का प्रयत्न किया जाता है, वहां परस्पर व्यवहार में सहज भाव नहीं होता। मासकल्चर की विशेषता है कि वह संबंधहीन स्वाधीनता की वकालत करती है , उपभोग की स्वाधीनता की हिमायत करती है। यह शून्यतामूलक स्वाधीनता है जो निषेधात्मक है। जो मनुष्य को पीड़ित करती है। जो लोग प्रभेद पैदा करते हैं ,जो संस्कृति प्रभेद पैदा करती है , प्रभेदों का पोषण करती है , उसे स्वाधीनता का पक्षधर कहना निरर्थक है। मासकल्चर जिस स्वाधीनता और मुक्ति की बात करती है वह संबंधहीनता पैदा करती है ,उसके माध्यम से सामाजिक परिपूर्णता प्राप्त करना असंभव है। प्रभेदों को खत्म करने में वस्तुएं कभी भी सहायक नहीं हुई हैं। बल्कि वस्तुओं ने सामाजिकर् ईष्या -डाह ,प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वन्द्विता को तीव्र किया है।वे निष्प्राण्ा और तर्कशून्य होती हैं।इसी तरह तकनीकी को प्रभेदों को खत्म करने का माध्यम नहीं बनाया जा सकता। तकनीकी में वाणी नहीं होती। वह विश्व के स्वर में अपना स्वर नहीं मिला सकती। उसके पास हृदय की पुकार का उत्तर नहीं है। आज बड़े-बड़े माध्यम प्रचार कर रहे हैं कि यदि अभावों को दूर करना है तो तरह - तरह के उपकरण जुटाओ। किन्तु उपकरण हमारे सवालों को हल करने में असमर्थ रहे हैं।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा था कि '' मानव जीवन में जहॉ अभाव है वहीं उपकरण जमा हो जाते हैं , जहॉ पूर्णता है वहॉ मनुष्य का अमृत रुप व्यक्त होता है।इस अभाव और उपकरण के पक्ष मेंर् ईष्या है ,द्वेष है, वहां दीवार है, पहरेदार हैं,वहां व्यक्ति अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है और दूसरे पर आघात करता है।''
टैगोर की राय थी कि मासकल्चर 'शोर' या 'कोलाहल' की संस्कृति है।और 'कोलाहल के नशे में संयम असम्भव है।' इसीलिए इसे असंयम की संस्कृति कहना समीचीन होगा है। यह प्रौद्योगिकी पर बल देने वाली संस्कृति है।इसमें फलभोग की तीव्र इच्छा-शक्ति है। इसका ज्यों-ज्यों लोक बढ़ता जाता है ,मनुष्य दूसरों को अपमानित करने में नहीं हिचकता।यह सभ्यता चाहे जितना विस्तार करे मनुष्य का आत्मिक सत्य इस सबसे दुर्बल हो जाता है।
मासकल्चर में सामाजिक ऐक्य का अभाव होता है।यदि ऐक्य का भाव होता तो अमरीका सबसे ज्यादा ऐक्यबध्द समाज होता।असल में, मासकल्चर 'और-और' की लालसा पैदा करती है।वहॉ आकांक्षा की आंधी है ,वहाँ जो कुछ भी मिले आनंद नहीं मिलता।मासकल्चर इकसार पर बल देती है ,एकता पर नहीं।इकसारता में स्वाधीनता का निषेध है। मासकल्चरकी नीति अजगर की नीति है।यह निगल जाने को एकीकरण कहती है।
संस्कृति और लोक संस्कृति 'सत्य' पर जोर देती है।जबकि मासकल्चर 'छद्म सत्य' या 'आभासी यथार्थ' पर जोर देती है। यह व्यवहार में अपना ही निषेध करता है।यह ऐसा यथार्थ है जिसका सामाजिक संबंधों पर नियंत्रण नहीं है।यह राजनीतिहीनता के आवरण में बडे पूंजीपति वर्ग की राजनीति करता है। इसी तरह पूंजीवादी संस्कृति से लड़ने के नाम पर जो लोग धर्म के उपकरणों के प्रयोग पर जोर देते हैं वे यह भूल जाते हैं कि धर्म के जरिए सामाजिक प्रभेदों को खत्म नहीं किया जा सकता। क्योकि धर्म का आधार प्रभेद और वैषम्य ही है। धर्म तर्कहीन होता है , वहाँ तर्क नहीं चलता ,वह परिवर्तन विरोधी होता है।धर्म जिन्हें पृथक् करता है वे अलग -अलग कमरों में रहते हैं और इनके दरवाजे दोनों ओर से बंद होते हैं। मासकल्चर भेद की संस्कृति है , इसका अबुध्दि से गहरा संबंध है।
उत्तर- आधुनिक भाव बोध पैदा करने में विज्ञापन और फैशन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।उत्तर- आधुनिक फैशन संतोष नहीं देता।जबकि आधुनिकतावादी फैशन संतुष्टि देता था।कारण यह है कि उत्तर-आधुनिक युग में संतुष्टि की संभावनाएं खत्म हो गई हैं। आज उपभोग और वितरण के प्रश्न महत्वपूर्ण हो गए हैं। आज फैशन उपभोग को अतृप्ति की दिशा में ले जा रहा है। अनगिनत रुपों को जन्म दे रहा है।
फैशन की खूबी है कि वह सार्वभौम 'कोड्स' के तहत अपना विकास करता है।ये पूर्ववर्ती सांस्कृतिक 'कोड्स' को हजम करके आते हैं।वह उन्हें बॉधे रखता है ,उनका रुपान्तरण करता है , उन्हें दोहराता है ,उनका इस तरह पुनर्निर्माण करता है जिससे उनका निरन्तर उपभोग किया जा सके। इसमें रुप और स्टायल की चक्राकार परिक्रमा चलती रहती है।
मासकल्चर की विशेषता है कि वह वास्तविक विवादों से घृणा करती है। वह ऐसी सहिष्णुता को निर्मित करती है जिसमें सामाजिक चुनौतियों के प्रति डर बैठा हुआ है।ऐसा नागरिक बनाती है जो वगैर किसी प्रतिरोध के सब कुछ स्वीकार लेता है। जो व्यक्तिगत चयन की जिम्मेदारी से मुक्त होता है। वह ' फॉरवर्ड फॉर फॉरवर्डनेस' में यकीन करता है।वह ऐसी प्रगति में यकीन करता है जो दिशाहीन और अंतहीन है।जिसमें मूल्यों और विवेक व्यवस्था का क्रम टूट चुका है। जो व्यक्ति मासकल्चर के साथ कदम मिलाकर नहीं चलता वह पिछड़ा माना जाता है।यहॉ उदासीनता का साम्राज्य है ,फ़र्क न कर पाने वाली मूल्यहीन चीजों की बाढ़ है। मासकल्चर ऐसा जगत रचती है जहॉ प्रत्येक चीज अंत में अर्थहीन होकर रह जाती है।अब सिर्फ सिरों की गिनती तक चीजें सिमट जाती हैं। जीवन के प्रति गंभीरता के अभाव के कारण गंभीरता का कोई महत्व नहीं रह जाता।अपितु महत्वपूर्ण वह है जो अर्थहीन है। यह ऐसा युग है जहॉ बहुसंख्यक जनता की राय सही मानी जाती है।अगर कोई उसकी राय से सहमत नहीं है तो बहिष्कृत कर दिया जाता है।''सभी मानते हैं तुम भी मानो'' का सिध्दान्त इसकी धुरी है। अब सब कुछ 'रुटिन' में बदल जाता है। हम वास्तविक चुनौती के अनुभव से वंचित हो जाते हैं। शक्तिहीन और किर्ंकत्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं।
उत्तर - आधुनिक चिन्तक मासकल्चर और उपभोक्तावाद को सकारात्मक ढ़ंग से देखते हैं। उन्हें इसकी खामियां नजर ही नहीं आतीं।वे मासकल्चर में निहित संस्कृतिहीनता और उपभोक्तावाद में निहित दरिद्रीकरण की उपेक्षा करते हैं।पूंजीवादी व्यवस्था में वस्तुओं का विस्तार एवं नित नए ब्रॉडों का प्रवेश एक आम नियम है। इसमें मजदूरों के श्रम और तकनीकी कौशल की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।मजदूरों के श्रम से निर्मित वस्तुएॅ उसे विपन्न बनाती हैं। कार्ल माक्र्स ने '' 1844 की अर्थशास्त्र और दर्शन संबंधी पांडुलिपि'' में इस फिनोमिना पर लिखा था कि मजदूर जितना ही ज्यादा स्वयं को व्यय करता है ,वस्तुओं का इतर -संसार जिसे वह सर्जित करता है ,उसी के उपर और उसी के विरुध्द उतना ही शक्तिशाली होता जाता है ,उसके पास उतनी ही कम वस्तुएं रह जाती हैं। इसी क्रम में उपभोक्ता समाज का निर्माण होता है। आम लोगों की पगार की कीमत घटती जाती है और जीवन स्तर में गिरावट आ जाती है। इजारेदारियाँ दिन- दूनी रात चौगुनी तरक्की करती जाती हैं।मजदूर द्वारा उत्पादित संपदा शक्ति और आकार में जितनी बढती जाती है वह उतना ही निर्धन होता जाता है।मजदूर जितना ही ज्यादा माल पैदा करता है ,वह निरंतर उतना ही सस्ता माल बनता जाता है। लोगों की दुनिया का अवमूल्यन वस्तुओं की दुनिया के बढ़ते हुए मूल्य के क्रमानुपात में होता है।इस क्रम में मजदूर के श्रम का वस्तुकरण हो जाता है।श्रम के वस्तुकरण के कारण ही अब वह माल के दासत्व की अवस्था में पहुंच जाता है।अब उसके उपर वस्तुओं का शासन होता है। वह वस्तुओं का गुलाम हो जाता है।
मजदूर जितना ही अधिक पैदा करता है उसके पास खपाने को उतना ही कम होता है ,वह जितना ही अधिक मूल्य सर्जित करता है ,उतना ही अधिक मूल्यहीन ,अधिक बेकार होता जाता है।उसका उत्पाद जितना ही अधिक सुनिर्मित होता है,मजदूर उतना ही अधिक विरुपित होता जाता है।उसका उत्पाद जितना ही अधिक सभ्य होता है मजदूर उतना ही बर्बर होता जाता है।श्रम जितना ही शक्तिशाली होता जाता है,मजदूर उतना ही अधिक शक्तिहीन होता जाता है। यह ठीक है कि श्रम धनवानों के लिए अद्भुत वस्तुएँ पैदा करता है ,लेकिन मजदूरों के लिए वह अभाव ही पैदा करता है।वह महल तैयार करता है ,लेकिन मजदूर के लिए झोंपड़े ही बनाता है।वह सौन्दर्य का सृजन करता है किन्तु मजदूर के लिए कुरुपता ही पैदा करता है। वह श्रम की मशीनों से प्रतिस्थापना करता है।वह बुध्दि का सृजन करता है लेकिन मजदूर के लिए मूर्खता ,जड़ता को पैदा करता है।
आमतौर पर विज्ञापनों में खाने-पीने , बच्चे पैदा करने, सुंदर आकर्षक वस्त्र पहनने ,अच्छे वाहनों पर सवारी करने पर जोर होता है। ये मूलत : उपभोग की प्रवृत्ति पर जोर देते हैं। किन्तु उपभोग पर जोर पाशव - अवस्था की ओर ले जाता है। इससे अमानवीय मूल्यों का सृजन होता है। ऐसी अवस्था को ध्यान में रखकर कार्ल माक्र्स ने लिखा था कि '' जो पाशव है,वह मनुष्य बन जाता है और जो मनुष्य है वह पाशव बन जाता है। निस्संदेह ,खाना,पीना,संतानोत्पत्ति आदि भी विशुध्दत :मानव कार्य हैं। लेकिन विमुक्त रुप में ,अन्य समस्त मानव क्रिया-कलाप के क्षेत्र से पृथक् रुप में लिए जाने और एकमात्र चरम लक्ष्य में परिणत कर दिए जाने पर वे पाशव कार्य ही हैं।''

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